Friday 30 November 2018

बस्तों का बोझ कम होने से लौटेगा बचपन

ललित गर्ग
स्कूली बच्चों पर बस्तों का बोझ कम करने की चर्चा कई वर्षों से होती आई है लेकिन अब केन्द्र सरकार ने पाठ्यक्रम का बोझ कम करने का फैसला किया है, जो एक सराहनीय कदम है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने स्कूलों को निर्देश दिए हैं कि पहली और दूसरी के छात्रों को होमवर्क न दिया जाए और उनके बस्तों का वजन भी डेढ़ किलो से ज्यादा नहीं होना चाहिए। मंत्रालय ने पहली से लेकर दसवीं क्लास तक के बच्चों के बस्ते का वजन भी तय कर दिया है। निश्चित ही शिक्षा पद्धति की एक बड़ी विसंगति को सुधारने की दिशा में यह एक सार्थक पहल है जिससे भारत के करीब 24 करोड़ बच्चों का बचपन मुस्कुराना सीख सकेगा।

सरकार ने संभवतः पहली बार यह बात स्वीकार की है कि बच्चों को तनावमुक्त बनाये रखना शिक्षा की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। पिछले कुछ समय से विभिन्न सरकारों की यह प्रवृत्ति हो चली है कि वे शिक्षा में बदलाव के नाम पर पाठ्यक्रम को संतुलित करने की बजाय उसमें कुछ नया जोड़ती रही एवं बोझिल करती रही हैं। इस तरह पाठ्यक्रम बढ़ता चला गया। सरकार ने बच्चों के बचपन को बोझिल होने से बचाने के लिये अनेक सूझबूझवाले निर्णय लिये हैं। मंत्रालय ने इन्हें केवल गणित और भाषा पढ़ाने को कहा है, जबकि तीसरी से पांचवीं कक्षा के स्टूडेंट्स को गणित, भाषा और पर्यावरण विज्ञान पढ़ाने का निर्देश दिया गया है। प्राइमरी शिक्षा में निश्चय ही यह एक बड़ा सुधार है, बशर्ते यह लागू हो जाए। स्कूल बैग का वजन कम करने को लेकर नियम पहले से ही बने हुए हैं पर वे लागू नहीं हो पाए। गौरतलब है कि 1993 में यशपाल कमिटी ने प्रस्ताव रखा था कि पाठ्यपुस्तकों को स्कूल की संपत्ति समझा जाए और बच्चों को अपनी किताबें क्लास में ही रखने के लिए लॉकर्स अलॉट किए जाएं।
आधुनिक समाज में बच्चों का जीवन बोझिल हो गया एवं उनका बचपन लुप्त होने लगा है, क्योंकि शिक्षा के निजीकरण के दौर में बस्ते का बोझ हल्का करने की बात एक सपना बन कर रह गयी थी। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने स्वीकार किया कि एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम जटिल है और सरकार इसे घटाने की दिशा में पहल कर रही  है। वर्ष 2005 में नैशनल करिकुलम फ्रेमवर्क (एनसीएफ) ने एक सर्कुलर जारी किया जिसमें बच्चों के शारीरिक और मानसिक दबाव को कम करने के सुझाव दिए गए थे। इसके आधार पर एनसीईआरटी ने नए पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें तैयार कीं, जिसे सीबीएसई से संबद्ध कई स्कूलों ने अपनाया। उसके बाद चिल्ड्रन्स स्कूल बैग एक्ट, 2006 के तहत कहा गया कि बच्चों के स्कूल बैग का वजन उनके शरीर के कुल वजन के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। इन सब उपायों के बावजूद आज भी ज्यादातर स्कूली बच्चों को भारी बोझा अपनी पीठ पर ढोना पड़ता है। स्कूल चाहे सरकारी हो या प्राइवेट, हकीकत यही है कि जिस स्कूल का बस्ता जितना ज्यादा भारी होता है और जहां जितना ज्यादा होमवर्क दिया जाता है, उसे उतना ही अच्छा स्कूल माना जाता है। जबकि सचाई यह है कि पाठ्यक्रम के भारी भरकम बोझ से बच्चों का मानसिक विकास अवरुद्ध होता है, इससे बच्चों को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है। एक तो बच्चों पर पढ़ाई का अतिरिक्त बोझ बढ़ा और जो व्यावहारिक ज्ञान एवं प्रायोगिक प्रशिक्षण बच्चों को विद्यालयों में मिलना चाहिए था, उसका दायरा लगातार सिमटता गया। बस्तों के बढ़े बोझ तले बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास सही ढंग से नहीं हो पा रहा है। आज बच्चे अपने बचपन को ढूंढ रहे हैं। किताबों से भरे बस्ते बेचारे मासूम बच्चे अपने कंधों पर ढो रहे हैं। हंसने-खेलने की उम्र में बच्चों की पीठ पर किताबों, कापियों का इतना बोझ लादना क्या इन मासूमों पर अत्याचार नहीं है? शरीर विज्ञानी चेतावनी दे चुके हैं कि भारी बस्ता बच्चों की हड्डियों में विकृति पैदा करता है और बड़े होने पर वे गंभीर बीमारियों के शिकार हो सकते हैं। इस भारी-भरकम पाठ्यक्रम को लादे बच्चें इस तरह बीमार रहने लगे, तनाव के शिकार होने लगे। तनाव है तो उद्दण्डता भी होगी, आक्रामक भी बनेंगे, इस बढ़ती आक्रामकता को हमने पिछले दिनों देखा है, किस तरह से बच्चे ने अपने प्रिसिंपल को ही गोली मार दी या किसी दूसरे साथी बच्चे की हत्या कर दी।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे को लागू करने के लिये सरकार सक्रिय हैं। शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) में संशोधन के आशय वाला बिल भी संसद के समक्ष रखा गया है। मद्रास हाईकोर्ट ने 30 मई को एक अंतरिम आदेश में केंद्र से कहा था कि वह राज्य सरकारों को निर्देश जारी करे कि वे स्कूली बच्चों के बस्ते का भार घटाएं और पहली-दूसरी कक्षा के बच्चों को होमवर्क से छुटकारा दिलाएं। कई शिक्षाविदों ने इस पर सवाल उठाया और कहा कि कम उम्र में बहुत ज्यादा चीजों की जानकारी देने की कोशिश में बच्चे कुछ नया नहीं सीख पा रहे, उलटे पाठ्यक्रम का बोझ उन्हें रटन विद्या में दक्ष बना रहा है। यही नहीं, इस दबाव ने बच्चों में कई तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा की हैं, वह कुंठित हो रहा है, तनाव का शिकार बन रहा है। पहले तो स्कूलों का तनावभरा परिवेश, आठों कलांशें पढ़ने से बच्चे थक जाते हैं और ऊपर से उनको भारी होमवर्क दे दिया जाता है। इस तरह होमवर्क कुल मिलाकर एक कर्मकांड का रूप ले चुका है, जिसका विकल्प ढूंढना जरूरी है। कच्ची उम्र में पढ़ाई का दबाव औसत मेधा और भिन्न रुचियों वाले बच्चों को कुंठित बनाता है। तोतारटंत के बजाय बच्चों में कुछ सीखने की सहज प्रवृत्ति पैदा हो, उन्हें प्राकृतिक परिवेश दिया जाये, इसी में उनके साथ-साथ देश की भी भलाई है, इसी में शिक्षा पद्धति की भी परिपूर्णता है। एकदम छोटे बच्चों को होमवर्क के झंझटों से मुक्त करना जरूरी है। शिक्षाशास्त्री बताते हैं कि 4 से 12 साल तक की उम्र बच्चे के व्यक्तित्व के विकास की उम्र होती है, इसलिए इस दौरान रटंत पढ़ाई का बोझ डालने के बजाय सारा जोर उसकी रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता विकसित करने पर होना चाहिए। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने जीवन विज्ञान के रूप में शिक्षा की इन कमियों को उजागर करते हुए एक परिपूर्ण शिक्षा का स्वरूप प्रस्तुत किया। अच्छा है कि सरकार ने उनके सुझावों एवं विशेषज्ञों की राय पर ध्यान दिया और शुरुआती कक्षाओं में पाठ्यक्रम का बोझ कम करने का निर्णय किया। उम्मीद करें कि राज्य सरकारें उसके निर्देशों की रोशनी में नियम बनाएंगी। पब्लिक स्कूलों के संचालकों, शिक्षकों और उन अभिभावकों को भी इन नियमों को मन से स्वीकार करना होगा, जो बच्चों को अधिक से अधिक पाठ रटा देने को ही गुणात्मक शिक्षा मान बैठे हैं।
बोझिल वातावरण में आज के बच्चे माता-पिता की आकांक्षाओं का बोझ भी ढ़ो रहे हैं और उन पर अभिभावकों की सामाजिक प्रतिष्ठा को बढ़ाने की जिम्मेदारी भी है। इन सब जटिल स्थितियों को भारत का बचपन संभाल नहीं पा रहा और वह आगे बढ़ने की अपेक्षा परीक्षा में फेल होने के डर से मौत को गले लगाने लगा हैं। आए दिन ऐसी खबरें आती रहती हैं, जो भारत की शिक्षा पर एक बदनुमा दाग है। आज पाठ्यक्रम में व्यावहारिक पाठ्यक्रम के ज्ञान व शिक्षा से भी बच्चों को वंचित होना पड़ रहा है। कहना न होगा कि बस्तों के बढ़े बोझ तले बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास सही ढंग से नहीं हो पा रहा है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि 12 साल की आयु के बच्चों को भारी स्कूली बस्तों की वजह से पीठ दर्द का खतरा पैदा हो गया है। पहली कक्षा में ही बच्चों को छह पाठ्य पुस्तकें व छह नोट बुक्स दी जाती हैं। मतलब पांचवीं कक्षा तक के बस्तों का बोझ करीब आठ किलो हो जाता है। बच्चों के बस्ते और भारी भरकम पाठ्यक्रम हैं। इससे बच्चों को पीठ, घुटने व रीढ़ पर असर पड़ रहा है। आजकल बहुत सारे बच्चे इसके शिकार हो रहे हैं। बस्तों के बढ़े बोझ से निजी स्कूलों के बच्चे खेलना भी भूल रहे हैं। घर से भारी बस्ते का बोझ और स्कूल से होम वर्क की अधिकता से शिशु दिमाग का विकास बाधित हो रहा है।
बढ़ी स्पर्धा के दौर में सरकारी स्कूलों को छोड़कर अभिभावक अपने नौनिहालों को बेहतर शिक्षा दिलाने के लिए निजी स्कूलों की ओर रुख कर रहे हैं। परीक्षा का समय हो या अध्यापक का व्यवहार, घरेलू समस्या हो या आर्थिक समस्या-तनावमुक्त परिवेश बहुत आवश्यक है। लेकिन बच्चों को तनावमुक्त परिवेश देने में शिक्षा को व्यवसाय बनाने वाले लोगों ने कहर बरपाया है। निश्चय ही कुछ स्वार्थी तत्त्व इन बच्चें रूपी महकते पुष्पों पर भी अत्याचार करने से बाज नहीं आते। उनका उद्देश्य हर कक्षा में अधिक से अधिक पुस्तकें लगवाना रहता है, जिससे वे पुस्तक-विक्रेताओं और दुकानदारों से कमीशन लेकर अपनी जेब गर्म कर सकें। दूसरी बात जो ध्यान में देनी है, वह यह है कि कक्षा के बंद कमरे में पाठ रटवाने के स्थान पर उन्हें रोचक ढंग से पढ़ाया जाए। बच्चों के दिमाग में शब्दों को भरना नहीं चाहिए, बल्कि उनके मस्तिष्क में शब्दों को निकलवाना चाहिए। वे अच्छी तरह से शब्दों को समझें, रटें नहीं। बच्चों को व्यावहारिक विद्या सिखलाई जानी चाहिए, ताकि उनके विचार शक्ति में इजाफा हो। केन्द्र सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा पद्धति की विसंगतियों को दूर करने के लिये केवल कानून ही नहीं बनाये, बल्कि उन्हें पूरी ईमानदारी से लागू भी करें, तभी भारत का बचपन मुस्कुराता हुआ एक सशक्त पीढ़ी के रूप में नयी दिशाओं को उद्घाटित कर सकेंगा। 

Monday 26 November 2018

लेख प्रकृति एवं पर्यावरण की उपेक्षा क्यों?

ललित गर्ग
विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस प्रति वर्ष पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने एवं लोगों को जागरूक करने के सन्दर्भ में सकारात्मक कदम उठाने के लिए २६ नवम्बर को मनाया जाता है। यह दिवस संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के द्वारा आयोजित किया जाता है। पिछले करीब तीन दशकों से ऐसा महसूस किया जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण से जुडी हुई है। इसके संतुलन एवं संरक्षण के सन्दर्भ में पूरा विश्व चिन्तित है।


पर्यावरण चिन्ता की घनघोर निराशाओं के बीच एक बड़ा प्रश्न है कि कहां खो गया वह आदमी जो स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को काटने से रोकता था? गोचरभूमि का एक टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था। जिसके लिये जल की एक बूंद भी जीवन जितनी कीमती थी। कत्लखानों में कटती गायों की निरीह आहें जिसे बेचैन कर देती थी। जो वन्य पशु-पक्षियों को खदेड़कर अपनी बस्तियां बनाने का बौना स्वार्थ नहीं पालता था। अपने प्रति आदमी की असावधानी, उपेक्षा, संवेदनहीनता और स्वार्थी चेतना को देखकर प्रकृति ने उसके द्वारा किये गये शोषण के विरुद्ध विद्रोह किया है, तभी बार-बार भूकम्प, चक्रावत, बाढ़, सुखा, अकाल जैसे हालात देखने को मिल रहे हैं। आज पृथ्वी विनाशकारी हासिए पर खड़ी है। सचमुच आदमी को जागना होगा। जागकर फिर एक बार अपने भीतर उस खोए हुए आदमी को ढूंढना है जो सच में खोया नहीं है, अपने लक्ष्य से सिर्फ भटक गया है। यह भटकाव पर्यावरण के लिये गंभीर खतरे का कारण बना है।
मानवीय क्रियाकलापों की वजह से पृथ्वी पर बहुत सारे प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हुआ है। इसी सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए बहुत सारी सरकारों एवं देशांे नें इनकी रक्षा एवं उचित दोहन के सन्दर्भ में अनेकों समझौते संपन्न किये हैं। इस तरह के समझौते यूरोप, अमेरिका और अफ्रीका के देशों में 1910 के दशक से शुरू हुए हैं। इसी तरह के अनेकों समझौते जैसे- क्योटो प्रोटोकाल,मांट्रियल प्रोटोकाल और रिओ सम्मलेन बहुराष्ट्रीय समझौतों की श्रेणी में आते हैं। वर्तमान में यूरोपीय देशों जैसे जर्मनी में पर्यावरण मुद्दों के सन्दर्भ में नए-नए मानक अपनाए जा रहे हैं जैसे- पारिस्थितिक कर और पर्यावरण की रक्षा के लिए बहुत सारे कार्यकारी कदम एवं उनके विनाश की गतियों को कम करने से जुड़े मानक आदि। लेकिन इन सबके बावजूद पर्यावरण विनाश की स्थितियां विकराल रूप से बढ़ रही है। निरंतर बढ़ रही जनसंख्या के कारण नई कृषि तकनीक, औद्योगिकरण और नगरीयकरण के कारण लोगों के जीवन स्तर में काफी परिर्वतन हो रहें हैं। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिकाधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहा हैं।
मनुष्य प्रकृति के साथ अनेक वर्षाें से छेड़छाड़ कर रहा हैं, जिससे पर्यावरण को काफी नुकसान हो रहा हैं। इसे देखने के लिए हमें ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। धरती पर बढ़ रही बंजर भूमि, फैलते रेगिस्तान, जंगलों का विनाश, लुप्त होते पेड़-पौधे और जीव जंतु, दूषित होता पानी, शहरों में प्रदूषित हवा और हर साल बढ़ते बाढ़ एवं सूखा, ग्लोबल वार्मिंग, वैश्विक तापमान वृद्धि, ग्लेशियर पिघलना, ओजोन का क्षतिग्रस्त होना आदि इस बात का सबूत हैं कि, हम धरती और पर्यावरण की सही तरीकें से देखभाल नहीं कर रहें।
आज पुरे भारत वर्ष में पर्यावरण के सम्मुख गंभीर स्थितियां बनी हुई है। प्लास्टिक का उपयोग बहुत ज्यादा बढ़ रहा है। प्लास्टिक के उपयोग से पर्यावरण को बहुत अधिक नुकसान हो रहा हैं, क्योंकि प्लास्टिक न तो नष्ट होती है और न ही सड़ती है। एक शोध के मुताबिक प्लास्टिक 500 से 700 सालों के बाद नष्ट होना प्रारम्भ होता है। प्लास्टिक को पूरी तरह से नष्ट होने में 1000 साल लग जाते हैं। इसका अर्थ ये हैं कि, अभी तक जितना भी प्लास्टिक बना वो आज तक नष्ट नहीं हुआ है।
मनुष्य जब प्रकृति का स्वामी बन जाता है तो वह उसके साथ कसाई जैसा व्यवहार करने लग जाता है। पश्चिम की सभ्यता की उपलब्धियां और उसके आधार पर दुनिया पर उसका आर्थिक साम्राज्य उन देशों के लिए भी अनुकरणीय बन गया जिनकी लूट-खसोट से वे वैभवशाली बने। प्रकृति के भण्डार सीमित हैं और यदि उनका दोहन पुनर्जनन की क्षमता से अधिकमात्रा में किया जाए तो ये भण्डार खाली हो जाएंगे। जल, जंगल और जमीन का एक-दूसरे के घनिष्ट संबंध है। भोगवादी सभ्यता जंगलों को उद्योग व निर्माण सामग्री का भण्डार मानती है। वास्तव में वन तो जिंदा प्राणियों का एक समुदाय है जिसमें पेड़, पौधे, लताएं, कन्द-मूल, पशु-पक्षी और कई जीवधारी शामिल हैं। इनका अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर है। औद्योगिक सभ्यता ने इस समुदाय को नष्ट कर दिया, वन लुप्त हो गए। इसका प्रभाव जल स्त्रोतों पर पड़ा। वन वर्षा की बूंदों की मार अपने हरित कवच के ऊपर झेलकर एक ओर तो मिट्टी का कटाव रोकते हैं और उसका संरक्षण करते हैं। पत्तियों को सड़ाकर नई मिट्टी का निर्माण करते हैं और दूसरी ओर स्पंज की तरह पानी को चूसकर जड़ों में पहुंचाते हैं, वहीं पानी का शुद्धिकरण और संचय करते हैं, फिर धीरे-धीरे इस पानी को छोड़कर नदियों के प्रवाह को सुस्थिर रखते हैं। इसीलिए मुहावरा बना है कि ‘जंगल नदियों की मां है।’
हमारे शास्त्रों में ‘संतोषं परमं सुखं’ का मुहावरा आया है। इसलिए विकास की परिभाषा यह है कि विकास वह स्थिति है, जिसमें व्यक्ति और समाज स्थायी सुख, शांति और संतोष का उपयोग करते हैं। वहां प्राकृतिक संसाधनों को क्षरण नहीं होता बल्कि उनकी वृद्धि होती रहती है। दूसरा, जिससे एक व्यक्ति या समूह का लाभ होता है, उसे दूसरों की क्षति न हो, विकास के कारण समाज में असंतुलन पैदा नहीं होना चाहिएा। असंतुलन असंतोष की जननी है। इन स्थितियों में आज की भोगवादी सभ्यता को प्राथमिकताओं-बाहुल्य के स्थान पर सादगी और संयम को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। सौभाग्य से भारतीय संस्कृति में सादगी और संयम का पालन करने वाले ही समाज में पूज्य और सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते रहे हैं। महात्मा गांधी ने भारतीय संस्कृति के इस संदर्भ को स्वयं अपने आचरण द्वारा पुनः जीवित कर सारी दुनिया को राह बता दी। उन्होंने कहा-‘प्रकृति के पास हर एक की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त है लेकिन किसी एक के भी लोभ लालच को संतुष्ट करने के लिए कुछ नहीं हैं।’ निश्चित रूप से कई वस्तुएं ऐसी होगी जिनके बिना हमारा काम नहीं चल सकता इसके विकल्प ढूंढने होंगे।
इधर भारत सरकार का नारा है ‘सबका साथ, सबका विकास’, यह नारा जितना लुभावना है उतना ही भ्रामक एवं विडम्बनापूर्ण भी है। यह सही है कि आम आदमी की जरूरतें चरम अवस्था में पहुंच चुकी हैं। हम उन जरूरतों को पूरा करने के लिए विकास की कीमत पर्यावरण के विनाश से चुकाने जा रहे हैं। पर्यावरण का बढ़ता संकट कितना गंभीर हो सकता है, इसको नजरअंदाज करते हुए सरकार राजनीतिक लाभ के लिये कोरे विकास की बात कर रही है, जिसमें विनाश की आशंकाएं ज्यादा हंै। विकास और पर्यावरण साथ-साथ चलने चाहिएं लेकिन यह चल ही नहीं रहे हैं, इसमें सरकारों के नकारापन के ही संकेत दिखाई देते हैं।
   जिस तरीके से देश को विकास की ऊंचाई पर खड़ा करने की बात कही जा रही है और इसके लिए औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे तो लगता है कि प्रकृति, प्राकृतिक संसाधनों एवं विविधतापूर्ण जीवन का अक्षयकोष कहलाने वाला देश भविष्य में राख का कटोरा बन जाएगा। हरियाली उजड़ती जा रही है और पहाड़ नग्न हो चुके हैं। नदियों का जल सूख रहा है, कृषि भूमि लोहे एवं सीमेन्ट, कंकरीट का जंगल बनता जा रहा है। महानगरों के इर्द-गिर्द बहुमंजिले इमारतों एवं शॉपिंग मॉल के अम्बार लग रहे हैं। उद्योगों को जमीन देने से कृषि भूमि लगातार घटती जा रही है। नये-नये उद्योगों की स्थापना से नदियों का जल दूषित हो रहा है, निर्धारित सीमा-रेखाओं का अतिक्रमण धरती पर जीवन के लिये घातक साबित हो रहा है। महानगरों का हश्र आप देख चुके हैं। अगर अनियोजित विकास ऐसे ही होता रहा तो दिल्ली, मुम्बई, कोलकता में सांस लेना जटिल हो जायेगा।
इस देश में विकास के नाम पर वनवासियों, आदिवासियों के हितों की बलि देकर व्यावसायिक हितों को बढ़ावा दिया गया। खनन के नाम पर जगह-जगह आदिवासियों से जल, जंगल और जमीन को छीना गया। कौन नहीं जानता कि ओडिशा का नियमागिरी पर्वत उजाड़ने का प्रयास किया गया। आदिवासियों के प्रति सरकार तथा मुख्यधारा के समाज के लोगों का नजरिया कभी संतोषजनक नहीं रहा। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी अक्सर आदिवासी उत्थान और उन्नयन की चर्चाएं करते हैं और वे इस समुदाय के विकास के लिए तत्पर भी हैं। क्योंकि वे समझते हैं कि आदिवासियों का हित केवल आदिवासी समुदाय का हित नहीं है प्रत्युतः सम्पूर्ण देश, पर्यावरण व समाज के कल्याण का मुद्दा है जिस पर व्यवस्था से जुड़े तथा स्वतन्त्र नागरिकों को बहुत गम्भीरता से सोचना चाहिए।
विकास के लिये पर्यावरण की उपेक्षा गंभीर स्थिति है। सरकार की नीतियां एवं मनुष्य की वर्तमान जीवन-पद्धति के अनेक तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल रहे हैं कि वहां जीवन का अस्तित्व ही कठिन हो जायेगा। प्रकृति एवं पर्यावरण की तबाही को रोकने के लिये बुनियादी बदलाव जरूरी है और वह बदलाव सरकार की नीतियों के साथ जीवनशैली में भी आना जरूरी है।  

Sunday 25 November 2018

मुद्दों की जगह मतों की राजनीति के चुनाव

ललित गर्ग
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे, राजस्थान और तेलंगाना में एक ही दिन 7 दिसंबर को मत डाले जाएंगे. जबकि मध्य प्रदेश और मिजोरम में 28 नवंबर को मतदान होगा. छत्तीसगढ़ में चुनाव दो चरणों में  होंगे, पांचों राज्यों के चुनाव परिणाम 11 दिसंबर को आएंगे. गौरतलब है कि इन 5 राज्यों के चुनाव काफी अहम हैं, क्योंकि इसके बाद सीधे लोकसभा चुनाव ही होने हैं, इसलिये इन विधानसभा चुनावों को आम चुनाव 2019 के सेमीफाइनल की तरह देखा जा रहा है.


सचाई यही है कि इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के आंकड़े एवं परिणाम ही बतायेंगे कि आगामी लोकसभा का क्या परिदृश्य बनेगा. तभी पता चलेगा कि कौन से मुद्दे काम कर रहे हैं और कौन से नहीं. वैसे ये चुनाव मुद्देविहिन हंै. हालांकि कहा यह जाता है कि विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में मुद्दे अलग-अलग होते हैं. यह काफी हद तक सही है मगर यह भी सही है कि विधानसभा के नतीजे से लोगों के मूड का अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है. राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़-इन तीन राज्यों में भाजपा अपने बूते पर ही अपने पिछले शासन के कार्यकाल के भरोसे मतदाताओं का विश्वास हासिल करने की लड़ाई लड़ रही है. इन तीनों ही राज्यों में उसकी मुख्य प्रतिद्वन्द्वी पार्टी कांग्रेस है. कांग्रेस पार्टी के कर्णधारों को भरोसा है कि सत्ता के विरुद्ध उपजे रोष का लाभ उन्हें मिलना निश्चित है.

देखना यह है कि सत्ता के विरुद्ध उपजे रोष का असर कितना होता है. प्रश्न तो यह भी है कि इन पांचों ही राज्यों में वास्तविक मुद्दे नदारद है, कोरी सत्ता हासिल करने की होड़ लगी है. अतः चुनावों में अन्तिम समय तक हार-जीत के बारे में कुछ भी निश्चिन्त होकर नहीं कहा जा सकता. किन्तु यह सोचना मूर्खता होगी कि भारत के मतदाता इस चुनावी गणित को नहीं समझते हैं अथवा राजनीतिक पार्टियां ऐसी चैसर बिछा कर उनको बेवकूफ बना सकती हैं. वे गफलत में तभी आते हैं जब सत्ता और विपक्ष दोनों का ही एजेंडा उनके दिलों में उठने वाले सवालों से दूरी बनाए रखता है. अक्सर इस तरह मतदाता को ठगने एवं लुभाने के ही प्रयास होते हैं, जो एक स्वस्थ लोकतंत्र की बड़ी विसंगति है.

लोकतंत्र को शुद्ध सांसें देने की जरूरत है. लेकिन यह साहस न सत्ताधारी पार्टियों में दिखाई दे रहा है और न विपक्षी पार्टियों में. यहां मेरा बिना विचारों के दर्शन और शब्दों का जाल बुने यही कहना है कि लोकतंत्र के इस सुन्दर नाजुक वृक्ष को नैतिकता के पानी और ईमानदारी की आॅक्सीजन चाहिए, जिसके सींचन के लिये चुनावों का समय ही सबसे उपयुक्त है. अगर ठीक चले तो लोकतंत्र से बेहतर कोई प्रणाली नहीं और ठीक न चले तो इससे बदतर कोई प्रणाली नहीं. मूल्यों की जगह कीमत की और मुद्दों की जगह मतों की राजनीति करने वाले लोगों ने एक बेहतर प्रणाली को बदतर प्रणाली बनाने की जो ठान रखी है, उसे निस्तेज करने के लिये मतदाता को जागरूक होना होगा और उसे वोट की ताकत को मजबूत करना होगा.

असल में भारतीय लोकतंत्र का बड़ा सत्य यह है कि यहां के अनपढ़ एवं भोलेभाले मतदाता को बेवकूफ एवं नासमझ समझने की भूल सभी राजनीतिक दल करते रहे  हैं. पिछले कुछ चुनावों में मतदाता के मुखर होने की घटनाओं के बावजूद राजनीतिक दल उन्हें ठगने एवं लुभाने की भूल करते हैं और फिर मात खाते हैं. क्योंकि मतदाता अपने मन की बात मतदान केंद्रों पर जाकर इस प्रकार व्यक्त करने लगा है कि राजनीतिज्ञों के होश उड़ जाते हैं. ये मतदाता किसी हवा या बहाव में आ जाते हों यह सोचना भी भूल होगी क्योंकि वे चुनावों का राजनीतिक एजेंडा स्वयं तय करते हैं और उन मुद्दों को छांट लेते हैं जिन पर उन्हें राजनीतिक दलों को परखना होता है, जो राजनीतिक दल जमीन पर जनता के बीच चल रही इस हलचल के आधार पर अपना एजेंडा उछाल देता है वही जीत हासिल करता है. भारत का पूरा चुनावी इतिहास इसी तथ्य का साक्षी है. अतः चाहे जितनी भी कोशिश कर ली जाए और मतदाताओं को चाहे जितना भी भावुक बनाने की कोशिश की जाए मगर उनका मत उसी पार्टी को पड़ता है जिसका घोषित एजेंडा उनके दिल में उठ रहे सवाल होते हैं और जिस राज्य में इस प्रकार की परिस्थितियां नहीं बन पातीं वहां त्रिशंकु विधानसभा का गठन होना सहज है. इसलिए इन तीनों राज्यों में विजय उसी की होगी जो लोगों के दिलों में पहले से बैठ चुका होगा.

भ्रष्टाचार हर चुनाव का मुख्य मुद्दा होना चाहिए, लेकिन अक्सल देखने में आता है कि राजनीतिक दल मूल रूप में उस पर कोई चोट नहीं करते हैं, जहां से भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियां बलवती होती हैं, बल्कि कई मायने में ये खुद भी उसी ढांचे में समाहित हो जाते हैं. ऐसे में देश का भविष्य वहां होगा जहां जन का क्रोध एकत्रित हो रहा है, जहां लोग एक सूखते हुए पेड़ की जड़ में कुल्हाड़ियां चला रहे हैं. जहां वे सात दशक की आजादी में अपने को लुटा महसूस करते हुए एक नई तलाश में एकजुट हो रहे हैं. क्या आदर्श राजनीति और सुदृढ़ लोकतंत्र के मायने वर्तमान में हो रहे इन चुनावों से उभर कर आयेंगे?

पूरे देश में आक्रोश है, हर कोई बेरोजगारी, महंगाई, अस्थिरता, सुविधावाद एवं भ्रष्टाचार के दावानल से पीड़ित एवं परेशान महसूस कर रहा है, चहूं ओर रोष का ज्वार है. मेरी दृष्टि में जिन राजनीति मुद्दों का उभार देखने को मिल रहा है, वे किसी भी तरह के सामाजिक परिवर्तन के लिए नाकाफी हैं. वे एक हद तक संसदीय लोकतंत्र की कुछ खामियों का निमित्त जरूर बन जाती हैं. आज राजनीतिक दल एवं राजनीति मुद्दे भी मखौल बन चुके हैं. क्योंकि इनमें वे तरीके अपनाएं जाते हैं जो लोकतंत्र के मूलभूत आदर्शों के प्रतिकूल पड़ते हैं, जबकि राजनीतिक मुद्दे लोकतंत्र को मजबूत करने का आधार हुआ करते थे. इन स्थितियों से गुरजते हुए, विश्व का अव्वल दर्जे का कहलाने वाला भारतीय लोकतंत्र आज अराजकता के चैराहे पर है. जहां से जाने वाला कोई भी रास्ता निष्कंटक नहीं दिखाई देता. इसे चैराहे पर खडे़ करने का दोष जितना जनता का है उससे कई गुना अधिक राजनैतिक दलों व नेताओं का है जिन्होंने निजी व दलों के स्वार्थों की पूर्ति के लिये न केवल इन चुनावी मुद्दों की धार को भोथरा किया है बल्कि इन मुद्दों के कर्ता-धर्ताओं के चरित्र एवं छवि को भी धुंधलाने का सफल प्रयास किया है. देश का दुर्भाग्य ही है कि जहां से भी ताजी हवाएं आने की संभावनाएं है उन सब खिड़कियों एवं दरवाजों को बन्द कर दिया गया है, कहां से रोशनी की उम्मीद की जाये? आज राजनीतिक दल तो पहले से ही दलदल में धंसे हैं, अब आशा की किरण बने इन चुनावों एवं उनके मुद्दों को भी चलने से पहले ही अडगी मार कर गिराया जा रहा है.

चुनावी संग्राम ही वह पल है जिसमें आम जनता के हितों को लेकर सार्थक बहस होनी चाहिए एवं सार्थक मुद्दों के बल पर सत्ता पर काबिज होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता. जहां सत्ता ने अपनी आदत के मुताबिक इन मुद्दों को नाकाम किया तो कहीं विपक्ष एवं अन्य दलों ने अपने स्वार्थों के लिये इन मुद्दों को हाईजैक किया. राजनीतिक मुद्दों का नेतृत्व करने वालों की मंशा एवं दिशाएं स्पष्ट न होने से जहां जनसैलाब की ताकत का अपव्यय हुआ, वहीं अव्यवस्था और भ्रष्टाचार को बल मिला है, अन्धेरा अधिक घना हुआ है, एक रिक्तता की स्थिति बनी है और ऐसा विश्वास स्थापित हुआ है कि इन बुनियादी मुद्दों का सूरज तो अस्त हो सकता है, लेकिन भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई एवं कालेधन के साम्राज्य का सूरज कभी अस्त नहीं हो सकता.

इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की सच्चाई यह भी है कि इन चुनावों के लिये एवं किसी बड़े एवं महान् लक्ष्य कोे पाने के लिये जिस तरह का साहस चाहिए, वह दिखाई नहीं दे रहा है. जबकि महान लक्ष्य हमेशा साहस देते हैं और तब बाधाएं और जीवन का भय छोटा लगने लगता है. मनोविज्ञान कहता है कि बड़े और जनकल्याण से जुड़े काम हमेशा खास तरह के साहस का पुट मानव में भरते हैं. समाज या देश में सच्चा नायक बनने की प्रवृत्ति भी साहस को कई गुना बढ़ा देती है. जाहिर-सी बात है साहस तभी आता है, जब आपके पास मकसद हो, जुनून हो, पक्की लगन हो. कह सकते हैं कि साहस एक जिजीविषा है, इसका स्थान ज्यादा बड़ा इसलिए भी हो जाता है कि इस प्रवृत्ति से समाज और मानवता को लाभ पहुंचा है. इन चुनावों के परिदृश्य एवं चुनावी संकल्प में ऐसे ही साहस की जरूरत है. क्योंकि साहस वो सीढ़ी है, जिससे सभी दूसरे नैतिक गुण जुड़े रहते हैं. असल में राजनीति की वास्तविकता वह नहीं होती है जो ऊपर से दिखाई पड़ती है. इसीलिए कहा जाता है कि सत्ता में आने की राजनीति कुछ और होती है और सत्ता चलाने की कुछ और- लेकिन इन दोनों की बुनियाद में नैतिकता एवं साहस जरूरी है.

भाजपा के लिए खतरे की घंटी है कल्‍पना सोरेन की सियासी मैदान में धमाकेदार एंट्री

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