देवानंद सिंह
झारखंड बिहार की राजनीति में हमेशा बहुत कुछ ऐसा होता है, जो अनुमानों से परे होता है। यहां की सियासत अपने ही अंदाज में अजीबोगरीब करवट लेती है, खासकर तब ज्यादा, जब चुनाव आने वाले होते हैं। अप्रैल के पहले पखवाड़े में जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य के जेल मैन्युअल में बदलाव किया तो अंदाज हो गया था, वो क्या करने वाले हैं। इसके साथ सूबे की सियासत करवट लेनी लगी। 30 साल पहले डीएम की हत्या में आजीवन कैद की सजा भुगत रहे आनंद मोहन सिंह के रिहा होने के बाद राज्य की राजनीति में नई सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है।वहीं ब्राह्मण युवा शक्ति संघ के द्वारा झारखंड में भूमिहार ब्राहमण को एक करने की कवायत शुरू कर दी गई है और अगर इसमें सफलता मिलती है तो राजनीति के दूरगामी परिणाम सामने आएंगे
दरअसल, सियासत अब गलत-सही, अच्छे-खराब से परे जाकर फायदों और वोट बैंक के रास्तों को राजमार्ग में बदलने में जुटी हुई है। झारखंड बिहार में उसी सियासी रास्ते का एक हिस्सा अब भूमिहार ब्राह्मण व आनंद मोहन सिंह बनने वाले हैं। सियासी हलकों में इस को लेकर चर्चा तेज है कि आनंद मोहन की रिहाई से कौन से तीर साधे जाने वाले हैं तो झारखंड सवर्ण को राजनीति की मुख्यधारा से धीरे-धीरे हटाने के बाद इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए थोड़ा पहले बिहार की राजनीति के अतीत में झांकना होगा फिर दूसरी कड़ी में झारखंड की बात करूंगा
*कभी सियासत की धूरी बना था सामाजिक न्याय*
दरअसल, पिछली सदी के आखिरी दशक में बिहार की राजनीति में सामाजिक न्याय का तानाबाना बड़ी जोर के साथ सियायत में तैरने लगा था। या यूं कहें कि यह शब्द भारतीय राजनीति की धुरी बन गया था। पिछड़े और दलित वर्ग को सत्ता में भागीदारी के नाम पर आई समाजवादी धारा की सरकारों ने जो नीतियां बनाईं, उनसे सवर्ण और पिछड़ों के बीच दूरियां बढ़ती चली गईं। उसी दौर में सामाजिक न्याय के बड़े चेहरे के रूप में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव उभरे। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव दूसरे चेहरे रहे। दोनों ही राजनेताओं ने सामाजिक न्याय के नाम पर राजकाज का जो तरीका अपनाया, उससे सवर्ण और पिछड़ों के बीच पैदा हुई खाई बढ़ती ही चली गई, जो मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद बननी शुरू हुई थी। इसी दौर में बिहार के कोसी इलाके से राजनीति के दो चेहरे उभरे। एक चेहरा पिछड़ावाद का पहरुआ था तो दूसरा उसका विरोधी। बिहार के कोसी अंचल में आज के पिछड़े वर्ग की प्रमुख जाति यादव के कई परिवारों की समृद्धि सवर्ण जमींदारों को भी मात देती है। ऐसे ही एक परिवार से उभरे राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव बाहुबली के रूप में उभरे। तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव का वरदहस्त उन पर था। तब उनका नाम रंगदारी में भी आगे आया। उनके निशाने पर सवर्ण समाज के लोग रहते थे तो दूसरी तरफ आनंद मोहन सवर्णों के पक्ष में खड़े होते रहे।
*सामाजिक न्याय की राजनीति को नहीं भाए थे आनंद मोहन*
आनंद मोहन चूंकि राजपूत जमींदार परिवार से हैं, लिहाजा वे तत्कालीन सामाजिक न्याय की राजनीति की आंख की किरकिरी बन गए थे। इसी दौर में आनंद मोहन की लालू यादव से अदावत बढ़ती गई। लालू के शासनकाल पर जंगलराज का आरोप लगा। उस जंगलराज और सवर्ण विरोधी हालात में आनंद मोहन सवर्ण तबके की उम्मीद बनकर उभरे। इसी दौर में जी कृष्णैया हत्याकांड हुआ, जिसमें वे फंस गए। 1994 में कृष्णैया की हत्या के समय बिहार में कहा जाता था कि तत्कालीन सरकार ने जानबूझकर अपने विरोधियों को इस हत्याकांड में फंसाया। उन्हीं दिनों बिहार में जनता दल से अलग होकर जार्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार ने समता पार्टी बनाई तो आनंद मोहन ने बिहार पीपुल्स पार्टी। दोनों में 1995 के विधानसभा चुनाव में समझौता हुआ, हालांकि सफलता नहीं मिली, जिसके बाद दोनों पार्टियां अलग हो गईं। यह बात और है कि उसी दौर में आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद ने एक उपचुनाव में वैशाली सीट से कांग्रेसी दिग्गज ललित नारायण शाही की बहू वीणा शाही को हराकर देश को चौंका दिया था। तब आनंद मोहन खुलकर लालू यादव का विरोध करते थे।
*एमवाई समीकरण बनाने में कामयाब रहे लालू यादव*
मंडलवाद और राममंदिर आंदोलन के बाद उभरी राजनीति में लालू यादव करीब 14 प्रतिशत आबादी वाले यादव और करीब 17 प्रतिशत वोटिंग आबादी वाले मुसलमान तबके को साथ मिलाकर एमवाई यानि माई समीकरण बनाने में कामयाब रहे। माई समीकरण के सहारे वे भूराबाल को ठेंगे पर रखते रहे। भूराबाल यानि भूमिहार, राजपूत, ब्रह्रामण और लाला यानि कायस्थ समुदाय। वो भूराबाल का सार्वजनिक उपहास करते रहे। उसे नीचा दिखाते रहे। माई समीकरण के साथ कुशवाहा, मुसहर और गैर पासवान दलित जातियों की गोलबंदी से वे सत्ता की सीढि़यां नापते रहे। बाद के दिनों में जब समता पार्टी उभरी तो उसने लवकुश का समीकरण रचा। लव यानि कुर्मी और कुश यानि कोइरी-कुशवाह समीकरण। बिहार की राजनीति में यह समीकरण करीब आठ फीसद मतदाताओं पर पकड़ रखता है। हालांकि, सवर्ण मतदाता इन दोनों ही राजनीति समूहों से अलग रहा, लेकिन 1996 में समता पार्टी ने जब भारतीय जनता पार्टी से समझौता किया तो समता पार्टी और भाजपा मिलकर लव-कुश और सवर्ण समुदायों को साधने में जुट गए।
*गठबंधन को 2005 में मिली पहली बार सफलता*
इस गठबंधन को सफलता पहली बार 2005 के विधानसभा चुनावों में मिली। तब भाजपा और समता पार्टी ने मिलकर इतिहास रच दिया था। इसके सामने लालू यादव का एमवाई खेत रहा। तब समूचा सवर्ण समुदाय, गैर यादव पिछड़ी जातियां और गैर पासवान दलित से लेकर 2015 के विधानसभा चुनावों तक तकरीबन यही समीकरण काम करता रहा। बाद के दिनों में नीतीश कुमार ने दलितों में अति दलित और पिछड़ों में अति पिछड़े समुदायों को अलग कर दिया। फिर ये जातियां लालू यादव के गठबंधन से दूर होती चली गईं, लेकिन इस बीच नीतीश कुमार ने दो बार पैंतरेबाजी की और भाजापा के इतर लालू का साथ ले लिया। भाजपा द्वारा नीतीश कुमार के साथ भविष्य में न जाने का ऐलान के बाद अब उनका दांवपेंच काम आता नहीं दिख रहा है।
लालू का एमवाई समीकरण भले ही बरकरार हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में नरेंद्र मोदी के उभार के बाद गैर यादव पिछड़ी जातियों में पार्टी की जबरदस्त पैठ बनी है। नीतीश कुमार की अपनी बिरादरी कुर्मी भी लालू यादव की पार्टी के साथ सहज महसूस नहीं कर रही है। इसीलिए उनके निर्वाचन क्षेत्र के अलावा तकरीबन हर जगह कुर्मी भी एमवाई समीकरण से अलग रुख दिखा रहा है। इस बीच उपेंद्र कुशवाहा को भाजपा ने तोड़कर एक तरह से लवकुश समीकरण को भी कमजोर कर दिया है। गैर पासवान दलित जातियों में भी भाजपा ने कड़ी सेंधमारी की है। रामविलास पासवान के परिवार में फूट के बाद पासवान समुदाय में भी पुरानी एकता नजर नहीं आ रही।
*कमजोर हुई सामाजिक न्याय की राजनीति*
इस बीच एक बदलाव राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति में भी हुआ है। लालू यादव के एमवाई समीकरण के बावजूद दो राजपूत नेताओं के साथ उनकी राजपूत समुदाय में पैठ की कोशिश जारी थी। रघुवंश प्रसाद सिंह और जगदानंद सिंह जैसे राजपूत नेता लालू यादव के साथ थे। इन संदर्भों में माना जा रहा है कि अब बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति कमजोर होने लगी है। अति पिछड़ों और अति दलितों में भाजपा की बढ़ती पैठ बाद सामाजिक न्याय के पुरोधाओं को अब उसी सवर्ण समाज से उम्मीदें बढ़ गईं हैं, जिन्हें गाली देते हुए उनकी राजनीति परवान चढ़ी है। पिछले कुछ साल से लालू यादव के बेटे तेजस्वी भूमिहारों की प्रशंसा करते नहीं थक रहे। आनंद मोहन के बेटे उनकी ही पार्टी से विधायक भी हैं। ऐसे में आनंद मोहन की रिहाई के बाद लगता है कि अब सामाजिक न्याय वाली राजनीति की उम्मीद राजपूत समुदाय से बढ़ गई है। बिहार में करीब आठ फीसदी राजपूत हैं, जो करीब नौ लोकसभा और 28 विधानसभा सीटों पर सीधे असर डालते हैं।
बाकी शायद ही कोई विधानसभा सीट होगी, जहां राजपूत जनसंख्या न होगी, इसीलिए अब नीतीश और तेजस्वी की जोड़ी आनंद मोहन के अतीत, उनके साथ अतीत में रही अदावत भुलाकर उनकी रिहाई के बहाने राजपूत समुदाय को लुभाने की कोशिश में जुट गई है। उसे लगता है कि अगर सत्ता उनके गठबंधन की ओर खिसकती दिखी तो राजपूत समुदाय हाथ बढ़ाने में देर नहीं लगाएगा, लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या लालू राज के दौरान राजपूतों और भूमिहारों के साथ जो अनाचार हुआ, क्या राजपूत समुदाय उसे सिर्फ आनंद मोहन की रिहाई उलटी पड़ सकती है। यह सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए दोहरे नुकसान की बात होगी, क्योंकि उनकी रिहाई जिस तरह से दलित स्वाभिमान और दलितों की उपेक्षा से जोड़कर देखा जा रहा है, उससे तो ऐसा ही लगता है।
*फायदे का सौदा होंगे आंनद मोहन*
राजनीतिक विशलेषकों का मानना है कि बिहार में महागठबंधन की राजनीति में वह नीतीश और लालू दोनों के लिए फायदे का सौदा साबित होंगे, चूंकि वह खुद राजपूत हैं। साथ ही भूमिहार और राजपूत समुदाय पर असर रखते हैं तो जेडीयू और आरजेडी की सियासी नाव को विधानसभा चुनावों में मदद दे सकते हैं। सीमांचल और कोसी की 28 विधानसभा सीटों पर उनके असर का दावा किया जा रहा है, हालांकि बिहार के ही एक नेता कहते हैं कि आनंद मोहन अगर सियासत में इन दो दलों के साथ आए तो दलित और पिछड़ा वोट उनसे छिटक भी सकता है, फायदे की गणित नुकसान में बदल सकती है। वैसे नीतीश कुमार और लालू को भरोसा है कि उनके दलों के वोटबैंक के साथ आनंद मोहन के जरिए राजपूत और भूमिहार वोट साथ आ गए तो विजयी समीकरण बना जाएगा।
बुधवार को राष्ट्र संवाद के अगली कड़ी में झारखंड की सियासत पर एक नजर