इस बार आर या पार निर्णायक लड़ाई के मूड में दिख रहा पूरा बिहार बिहार
विधानसभा चुनाव के बनते बिगड़ते समीकरण ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है. नेता प्रतिपक्ष और आरजेडी के तेजस्वी यादव ने बिहार की जनता की
दुखती नब्ज पर हाथ रखा है और उस पर मलहम लगाने का काम किया है .
यह अलग बात है कि सत्ता उनके हाथ में आती है , नहीं आती है और आती है तो उन्होंने जो यहां के बेरोजगार और पढ़े-लिखे युवकों को 10 लाख सरकारी नौकरी का भरोसा दिया है, उस भरोसे पर वह कितना खरा उतरते हैं. लेकिन फिलहाल तेजस्वी यादव भाजपा और जेडीयू के तमाम बड़े बड़े नेताओं पर भारी दिख रहे हैं. यहां तक की प्रधानमंत्री भी बिहार में चुनावी सभाओं को संबोधित कर रहे हैं , लेकिन बिहार की तबाही , बेरोजगारी, भुखमरी और उससे उत्पन्न परिस्थितियों की कम बातें हो रही हैं . जो कुछ बाते हो भी रही है उस पर भी बिहार की जनता का ऐसा लगता है कि भरोसा टूट गया है. नीतीश कुमार के खिलाफ बिहारी जनता की नाराजगी कहीं भाजपा को भी भुगतनी पड़ सकती है . यह तो 10 नवंबर की मतगणना बताएगी की बिहार का भविष्य और राजनीतिक परिदृश्य किस ओर मुड़ता है . इस बार के विधानसभा चुनाव से स्पष्ट हो गया है कि बिहार निर्णायक मूड में है . जिस तरीके से इस देश के भीतर जातियों के समीकरण के तले राजनीति को माथा जा रहा है, विकास की परिभाषा गढ़ी जा रही है. आर्थिक और समाजिक न्याय की परिस्थितियां दिल्ली से लेकर पटना तक तार-तार हो रही है उन परिस्थितियों को बिहार शायद पचाने की स्थिति में नहीं दिख रहा है . बिहार की जनता सारी स्थितियों को समझते हुए धीरे-धीरे निर्णायक मूड में आ रहा है. यही वजह है कि जिसने बिहार को बदलने की ठानी है उसके लिए यह कोई मायने नहीं रखती है. शिक्षा और प्रशिक्षण के नाम पर, कॉलेज से ड्रॉपआउट के नाम पर, उद्योग के नाम पर , कृषि के नाम पर बेरोजगारी के नाम पर आज का प्रभावशाली युवा वोटिंग करने को तैयार है इसके इतर किसी भी राजनीतिक दल का वह कोई चीज सुनने को तैयार नहीं है. 3 नवंबर को जिन 94 सीटों पर वोट पड़ने जा रहे हैं वह क्षेत्र बिहार का सबसे पिछड़ा इलाका माना जाता है. चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो . उसमें भी 17 विधानसभा ऐसे क्षेत्रों में आता है जो अति पिछड़ा माना जाता है चाहे वह शिक्षा की बात हो , स्वास्थ, सड़क, बेरोजगारी, कृषि गत भूमि और कृषि जनित आय के साधन हर दृष्टि से यह इलाका गरीबी रेखा से नीचे का जीवन स्तर जीता है. बिहार के इन 17 जिलों की हकीकत चकित करने वाले हैं. वही वर्ष 1990 से 2005 तक लालू और राबड़ी राज के दौरान कुछ परिस्थितियां ऐसी हुई , ऐसेअपराध हुए, लोगों को अपेक्षाकृत रोजगार बहुत कम मिले , जिससे आरजकतता की स्थिति पैदा हो गई . जिसे जंगलराज की संज्ञा दी जाने लगी . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार के चुनावी दौरे पर हैं. मोतिहारी , छपरा में भाषण दे रहे हैं. लेकिन प्रधानमंत्री के द्वारा कहे गए कुछ शब्द उन दिनों की याद दिलाते हैं जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने चुनाव प्रचार के दौरान गुजरात के गांधीनगर पहुंचकर जो ऐलान किया था जो आह्वान किया था और जो संकेत दिया था उससे लगा था की वास्तव में लोकतंत्र कैसा होना चाहिए. संवैधानिक मूल्यों की रक्षा होनी चाहिए, जो नहीं हो रही है . लेकिन आज का माहौल और परिस्थितियां बिल्कुल भिन्न हो गई हैं . बिहार ही नहीं देश के किसी इलाके में आप चले जाइए फिर जंगलराज क्या होता है उसे खुद आप परिभाषित कर लेंगे. लेकिन जहां तक बिहार की बात है तो किन परिस्थितियों में हुई जंगलराज की शुरूआत? आज की परिस्थिति में उसे भी जानने की जरुरत है. उस जंगलराज और आज की आर्थिक परिस्थितियां जो एक ऐसी स्थिति में बिहार को लाकर खड़ा कर दिया है , जहां आर्थिक विपन्नता न्यूनतम जरूरत की चीजें मुहैया कराने के लिए और अस्तित्व को बचाए रखना चुनौती बन कर खड़ी है. आज के युवाओं के हाथों में डिग्रियां है. हुनर है. आइडिया भी जानते हैं. लेकिन काम नहीं है. बेरोजगारी है जिससे भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है. और हम किस जंगलराज का जिक्र करते हैं. 3 नवंबर को जिन 94 सीटों पर वोट पड़ने हैं उसे भी जानना नितांत आवश्यक है. वहां 48 घंटों के भीतर मतदान शुरू हो जाएंगे. आज से ठीक 30 वर्ष पहले लालकृष्ण आडवाणी रथ यात्रा के लिए निकले थे. यह वही इलाका है जहां समस्तीपुर में वे गिरफ्तार कर लिए गए थे . उन दिनों लालू यादव मुख्यमंत्री थे . वे वर्तमान में जेल में है . उन्हें चुनावी सभाओं में अंकित किया जा रहा है . भाषणों में और चुनाव के केंद्र में उन्हें लाने की कोशिश की जा रही है और कहा जा रहा है कि उनके समय में जंगलराज था. लेकिन आज का युवा उन भाषणों में उम्मीद लगाता है की कुछ जिक्र रोजी रोटी का हो जाए लेकिन विडंबना है कि ऐसी बातों का जिक्र किया जाता है, जिस और युवा ध्यान नहीं देना चाहता. आज तो ना इंडस्ट्रीज है ,.ना कृषि न रोजगार है ना नौकरी है . 30 अक्टूबर 1990 से जिस दिन समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी हुई थी उस दिन से लेकर आज तक आरजेडी के 17 बड़े नेताओं ने मौजूदा आरजेडी को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया है. ऐसे में प्रधानमंत्री जिस जंगलराज की बात करते हैं उस जंगल राज में तो उनकी पार्टी में शामिल 17 बड़े नेता भी थे, तो फिर जिक्र तो उनका भी होना चाहिए. प्रधानमंत्री के बयान को मान भी लिया जाए तो जंगलराज के हिमायती को शामिल क्यों किया अपनी पार्टी में. जिस कश्मीर का जिक्र होता है,वहां पीडीपी के साथ किस ने सरकार बनाई ? ममता बनर्जी के साथ भी वही हुआ. ममता के हनुमान के तौर पर तुषार राय को आपने पार्टी में शामिल कर लिया. हर बार अतीत को दोहराया जाए तो स्थितियां नाजुक हो जाएंगी. आज परिस्थितियों के दो सच हैं .सवर्णों से निकलकर सत्ता पिछड़ी जातियों के हाथ में आ गई .सत्ता और कानून का राज भी उसके अनुकूल हो गया . अब टकराव की स्थिति होते होते बिहार में फिरौती, डकैती , लूट जो एक नई परिस्थिति थी वह क्राइम सिस्टम का हिस्सा बन गया.
15 वर्षों के भीतर कल्याणकारी योजनाएं भी उसी के अनुकूल हो गयी.दरअसल बिहार ने अपने तौर पर इस विजन को डिवेलप ही नहीं किया ताकि उसका ग्रोथ रेट उपर हो. उसके पास तो पैसा ही नहीं है . ऐसे में उसे तो केंद्र की गुलामी तो करनी ही पड़ेगी. आज तो वाकई बिहार के लोगों के दर्द को कौन समझ पा रहा है . यही गुस्सा उनके भीतर का है . जिन 94 सीटों पर मंगलवार को चुनाव होने जा रहा है, उसकी एक झलक देख लीजिए . पश्चिमी चंपारण , पूर्वी चंपारण मधुबनी, गोपालगंज , सारण मोतिहारी , समस्तीपुर बेगूसराय , खगड़िया भागलपुर , नालंदा समेत अन्य है. भले ही विभिन्न राजनीतिक पार्टियां जनहित का दंभ भर ले महिलाओं की सुरक्षा और आरक्षण की बात कर ले लेकिन ऐसे ऐसे उम्मीदवार भी चुनाव मैदान में हैं जिसे राजनीतिक पार्टियों ने टिकट दिया है पुल पर हत्या और बलात्कार जैसे मुकदमे दर्ज हैं, और कोर्ट में विचाराधीन है. 4 उम्मीदवारों पर रेप का आरोप है . 32 प्रत्याशी ऐसे हैं जिन पर मर्डर का चार्ज है. 143 उम्मीदवार ऐसे हैं जिन पर छोटे-मोटे अपराधिक मामले दर्ज हैं . सुशासन बाबू नीतीश कुमार के समय में कानून व्यवस्था की स्थिति में सुधार हुआ सड़कों का निर्माण हुआ बिजली और पानी की व्यवस्था किए जाने की प्रक्रिया जारी है लेकिन रोजगार स्वरोजगार और सरकारी नौकरी जैसे मुद्दों पर सरकार की प्रगति ना के बराबर रही है जिन 15 वर्षों में 15 से लाख लोगों को सरकारी नौकरी या जाना चाहिए था वहां अनुबंध पर शिक्षकों की नियुक्ति की संख्या छोड़ दी जाए तो बहुत बुरी स्थिति है पूरा बिहार तबाह है ऐसे में जंगलराज कौन बेहतर है यह तो समय पर जनता ही बताती है . लालू के जंगल राज के समय की स्थिति यह थी कि लोग और 7:00 बजे के बाद घर तक नहीं जा पाते थे. एक जंगलराज दिखाई देता है जिसमें कोई तलवार लेकर जा रहा है . दूसरा जंगलराज दिखाई नहीं देता है, जो कि पूरी जमीन पर ही धारदार हथियार बिछाये है. एक जंगल राज में निवाला छीन के दिखाता है तो एक जंगल राज में निवाला ही नहीं मिलता है. अब आम आदमी क्या करें समझ में उसके नहीं आ रहा है . बिहार का बाशिंदा हर तरफ से परेशान है . नौकरी और रोजगार नहीं है. परिवार की परवरिश के लिए मां-बाप दूसरे राज्यों में पलायन कर जाता है, ताकि वह नौकरी करें और पैसे कमा कर परिवार का भरण पोषण करें. गरीबी रेखा से नीचे का तब का एक मजदूर मजदूरी करने दूसरे रज्यों मेंं निकल जाता है . खेतिहर मजदूरों के लिये भी बिहार में काम नहीं है. वह पंजाब के खेतों में आकर काम करता है .कुछ पैसा वहां से कमा कर वापस भेजता है . इस स्थिति में ट्रांसफॉरमेशन बिहार का जीविकोपार्जन का आधार बन गया है . चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो जनहित की बात तो करता है, लेकिन उस का मुख्य उद्देश्य पावर और पैसे कमाने का होता है . वह गद्दी पाना चाहता है . गद्दी पाने के बाद कसमे वादे प्यार वफा सब वादे हैं वादों का क्या ? यही स्थिति बनती चली जाती है . सत्ता आयी तो 5 वर्ष ऐस मौज किया . मेनूफेस्टों को डस्टबिन में डाल दिया. लोग चिखते रहें चिल्लाते रहे. दरअसल प्रजातंत्र में चुनाव पावर और पैसा पाने की होड़ जैसा है. यही कारण है कि नेतागण स्वार्थ सिद्धि के लिए कपड़े की तरह राजनीतिक पार्टियां बदलते हैं. गद्दी पाने की संभावना की तलाश में बड़ी तादाद में जेडीयू से लोग आरजेडी में गए . आरजेडी से जेडीयू में आए . अगर आरजेडी के लोगों को याद किया जाय तो चंद्रिका राय जो कि लालू यादव के समधी है नीतीश के साथ चले गए. वर्धन यादव , बच्चा यादव राम लखन यादव के बेटे भी उन्हीं के साथ चले गए. पुराने दौर को याद किया जाए तो एक ही लाठी से पूरे गांव को हांकने की स्थिति होती थी. दरभंगा के विनोद मिश्रा 30 साल से बीजेपी में थे . दो बार बीजेपी के जिला वाइस प्रेसिडेंट भी रह चुके हैं . वे डिस्ट्रिक्ट वर्किंग कमेटी में भी शामिल हुए थे . विनोद मिश्रा को अलीनगर से टिकट दिया गया . सब कुछ किया लेकिन अब आरजेडी में शामिल हो गए. दरभंगा जहां पर जातीय समीकरण टूट रहे हैं वहां राजनीतिक पार्टियों और उनके गठबंधन के कंबीनेशन बन रहे हैं. तेजस्वी यादव के 10 लाख सरकारी नौकरी दिए जाने के वायदे ने सारे समीकरण ध्वस्त कर दिए हैं . तेजस्वी के लिए यह फायदेमंद का सौदा साबित हुआ है लेकिन महागठबंधन के समीकरण तले जहां आरजेडी के उम्मीदवार नहीं हैं वहां उसके समर्थक यानी कांग्रेस और कम्युनिस्ट को इसका सीधा सीधा लाभ पहुंच रहा है. अब बिहार के विधानसभा चुनावों में लड़ाई सीधे तौर पर एनडीए और महागठबंधन के बीच बनकर रह गई है . दोनों पक्षों की घोषणाओं का लोकलुभावन वायदों को जनता कितनी पसंद कर रही है , यह 10 नवंबर को ही पता चलेगा. जिस दिन वोटों की गिनती होगी. लेकिन इतना तो तय है कि चुनाव के एक-दो माह पूर्व तक जहां तेजस्वी यादव और उनका महागठबंधन एनडीए के साथ लड़ाई में कहीं नहीं दिख रहा था , वह आज कड़े मुकाबले में है . या यूं कहें कि मुकाबले में वह निश्चित तौर पर भारी पड़ता दिखाई दे रहा है. एक बात तो तय है कि राजनीति का गणित चाहे जो भी कहता हो, लेकिन तेजस्वी यादव नीतीश का विकल्प नहीं हो सकते हैं. इसमें भी कोई शक नहीं है कि लालू यादव से नीतीश कुमार का शासनकाल बेहतर रहा है . भूरा बाल साफ करो वाला लालू का समीकरण नीतीश के समय में पर्दे में रहा. कानून व्यवस्था की स्थिति भी दुरुस्त रही . पुलिस और प्रशासनिक विभाग के आला अधिकारियों यानी आईएएस आईपीएस को पद के साथ-साथ सम्मान भी मिला, जो लालू के समय में नहीं था. अपहरण उद्योग लगभग समाप्त हो गया था . आज नीतीश की कमजोर पड़ती सत्ता में वापसी की संभावना के पीछे कई कारणों में एक कारण सवर्णों के एक बहुत बड़े तबके का नाराज होना भी है . इस तबके का झुकाव लोजपा और राजद की ओर दिखाई पड़ रहा है . बावजूद इसके निश्चित तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा.