Wednesday 26 December 2018

पारा शिक्षकों की हड़ताल: सियासत ठीक नहीं?

पारा शिक्षकों की हड़ताल: सियायत ठीक नहीं ?
देवानंद सिंह
झारखंड आज विकास के पथ पर अग्रसर है। सीएम रघुवर दास अपना चार का साल का कार्यकाल भी पूरा करने जा रहे हैं। इस दौरान बहुत से क्षेत्रों में हुए विकास की लोग तारीफ भी कर रहे हैं, जिसके लिए सीएम बधाई के पात्र भी हैं, लेकिन इन सबके बीच कुछ मुद्दों विशेषकर पारा शिक्षकों के मामले को देखा जाए तो सीएम की चुप्पी निश्चित ही चौंकाती है। पारा शिक्षकों के विरोध से जिस प्रकार से प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था चरमरा रही है, उसमें सीएम को आगे आना चाहिए। शुरूआती दो दिन का विधानसभा का शीतकालीन सत्र जिस प्रकार पारा शिक्षकों के मुद्दे के चलते हंगामे की भेंट चढ़ गया है, उससे जाहिर होता है कि आने वाले दिनों में भी इसकी चिंगारी का असर देखने को मिलेगा। शीतकालीन सत्र के भले ही दो दिन हंगामे की भेंट चढ़े हों, लेकिन जिस प्रकार पारा शिक्षक अन्य राज्यों छत्तीसगढ़, बिहार आदि राज्यों की भांति स्कूल विलय, वेतनमान, स्थाई करने आदि की मांग को लेकर पिछले डेढ़ माह से हड़ताल पर हैं, उससे प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। विपक्ष इस मामले पर पूरा हंगामा किए हुए है और सरकार की तरफ से कोई संतोषजनक सुझाव नहीं आ रहा है। चूंकि शिक्षा मंत्री ने कहा कि सरकार इस मामले पर सरकार वार्ता के लिए तैयार है, लेकिन पारा शिक्षक विधिवत् बातचीत पर विश्वास रखते हैं। उनका कहना है कि जब तक सरकार की तरफ से विधिवत् बातचीत का ऑफर नहीं मिलता है, तब तक वे विरोध से पीछे नहीं हटेंगे, लेकिन इस मामले में सीएम रघुवर दास ने अभी तक चुप्पी साधी हुई है। इससे जाहिर होता है कि सरकार इस मुद्दे पर झुकने को बहुत ज्यादा तैयार नहीं है। इन स्थितियों के बीच भले ही सत्तारूढ़ और विपक्षी पार्टी अपनी सियासत चमकाने में लगी हुईं हों, लेकिन इसमें सबसे ज्यादा नुकसान राज्य के मासूम बच्चों का हो रहा है, क्योंकि सियासत और पारा शिक्षकों की हड़ताल के बीच शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो चुकी है। विपक्ष पूरी कोशिश कर रहा है कि इस मुद्दे को कैसे भुनाया जाए, जिससे इसका लाभ आने वाले चुनावों में लिया जा सके। पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन  और  विधायक कुणाल सारंगी  पूरे मामले को  गंभीरता से ले रहे हैं वह इस मुद्दे पर  बाहर चाहते हैं ।इस मुद्दे पर जहां सरकार और विपक्ष को आपसी तालमेल के साथ हल तलाशना चाहिए, वहीं पारा शिक्षकों को भी बच्चों के भविष्य के बारे में निश्चित ही सोचना चाहिए, तभी प्रदेश सर्वांगीण विकास की सीढ़ी चढ़ पाएगा।

Tuesday 11 December 2018

चुनाव परिणाम :राहुल की शानदार वापसी

*चुनाव परिणाम: राहुल की शानदार वापसी*
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके हैं। तीन बड़े राज्यों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने में सफल रही है। यह कांग्रेस के लिए विधानसभा चुनाव की खुशी ही नहीं है, बल्कि आगामी लोकसभा चुनावों के लिए एक ऐसी संजीविनी भी है, जिसमें पार्टी को बीजेपी के खिलाफ लड़ने की नई ताकत भी मिलेगी और कुछ बेहतर रिजल्ट की उम्मीद भी रहेगी। लोकसभा चुनाव के सेमिफाइनल में जिस तरह से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने शानदार वापसी की है, उससे बीजेपी को झटका तो लगा है और उसके लिए चिंता की ऐसी लकीर भी खींच दी है, जिसमें उसे आत्ममंथन करने की सख्त जरूरत है, क्योंकि केंद्र सरकार की कार्यप्रणाली से सर्वणों का पूरी तरह मोह भंग हुआ है। वादे कुछ और किए गए थ्ो और काम कुछ भी नहीं किया गया, जिससे बीजेपी के लिए स्थितियां काफी विपरीत होती जा रही हैं।
अगर, आगामी दिनों में भी यही स्थिति रही तो आगामी लोकसभा चुनाव में बाजी मारना बीजेपी के लिए बहुत ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। बीजेपी सर्वणों के बल पर चुनाव जीती थी, लेकिन सत्ता में आते ही जिस प्रकार उसने सर्वणों को सत्ता संगठन से दूर किया, उससे सर्वणों के बीच बीजेपी के प्रति काफी नाराजगी है।जनादेश ने साफ तौर पर बतलाया है कि जादू या जुमले से देश चलता नहीं और मंदिर नहीं सवाल पेट का होगा । सिस्टम गढा नहीं जाती बल्कि संवैधानिक संस्थाओ के जरीये चलाना आना चाहिये  ये अभी पांच ही राज्यों के चुनाव हैं, अन्य राज्य भी इसी तरह से खिसकते गए तो बीजेपी के हाथ से बहुत राज्य खिसक जाएंगे। इन परिणामों से केंद्र सरकार को सबक लेने की जरूरत तो ही है बल्कि दूसरे बीजेपी शासित राज्यों की सरकारों को भी आत्ममंथन करने की जरूरत है।
खासकर, झारखंड के सीएम रघुवर दास को भी इन परिणामों से सबक लेने की जरूरत है। अगर, समय रहते आत्ममंथन नहीं किया गया तो वह दिन भी दूर नहीं होगा, जब मध्यप्रदेश, राज्यस्थान और छत्तीसगढ़ की जैसी स्थिति हो जाएगी। मध्यप्रदेश में कई वर्षों से बीजेपी शासन चल रहा था और कांग्रेस ने 115 सीट जीतकर बड़ी जीत हासिल की है। वह मजोरिटी से महज एक सीट पीछे है, जिसे वह अपने पाले में कर ही लेगी। वहीं, छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सबसे बड़ी हार हुई है। यहां भी रमन सिंह के नेतृत्व में कई वर्षों से सरकार चल रही थी, लेकिन इस बार बीजेपी को यहां महज 15 सीटों पर ही सिमटना पड़ा और कांग्रेस 68 सीट जीतने में सफल रही। राजस्थान में कांग्रेस 1०1 सीटें निकालने में सफल रही, जबकि बीजेपी को 73 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। कांग्रेस अगर, सेमिफाइनल निकालने में सफल रही है तो निश्चित ही उसकी फाइनल के प्रति भी उम्मीद बढ़ जाएगी।

Friday 7 December 2018

एग्जिट पोल: पीएम मोदी की हार या राहुल की कामयाबी!

एग्जिट पोल: पीएम मोदी की हार या राहुल की कामयाबी!
देवानंद सिंह
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव का परिणाम भले ही 11 दिसंबर को साफ हो पाएगा, लेकिन जिस तरह के परिणाम एग्जिट पोल के माध्यम से सामने आए हैं, उसे बहुत ज्यादा हैरानी तो नहीं कहेंगे, लेकिन इतना जरूर कहेंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हार या राहुल गांधी की कामयाबी। यह भाजपा शासित झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास समेत दूसरे बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के लिए एक सबक तो है ही, बल्कि सबसे बड़ा सबक तो 2०19 में होने जा रहे लोकसभा चुनावों को लेकर देश की सबसे बड़ी और केंद्र में सरकार चला रही बीजेपी के लिए है, क्योंकि जिस तरह के सब्जबाग पार्टी की तरफ से दिखाए गए, उन्हें वह पूरा करने में कामयाब नहीं हो पाई। 

नतीजतन, आगामी 11 दिसंबर को परिणाम कुछ भी हों, लेकिन टक्कर भी कड़ी रही तो निश्चित ही यह पुराने दिन लौटने की तरफ इशारा निश्चित ही होगा। मध्यप्रदेश में जहां कई वर्षों भाजपा की सरकार रही है, वहीं राजस्थान में भी भाजपा की सरकार की है, लेकिन एग्जिट पोल में जहां इन दोनों बड़े राज्यों में कांग्रेस को मजबूत स्थिति में दिखाया गया है, उससे तो लगता है कि जनता बीजेपी सरकार से पूरी तरह ऊब गई है और इसका बहुत ज्यादा असर आगामी लोकसभा चुनावों में अवश्य ही दिख्ोगा। फिलहाल, तेलंगाना व मिजोरम के परिणामों पर बहुत ज्यादा न जाएं तो तीन राज्यों के परिणाम बहुत कुछ बयान करते हैं। राजस्थान में 2०० विधानसभा सीटें हैं, मध्यप्रदेश में 23०, छत्तीसगढ़ में कुल 9० सीटें हैं। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर रही है। आने वाले समय में जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें झारखंड की बात करें तो सत्ता में वापसी भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है संघ, सत्ता व संगठन में तालमेल का घोर अभाव दिख रहा है  सरकार में बैठे लोग फील गुड महसूस कर रहे हैं परंतु जमीनी हकीकत संगठन के कार्यकर्ताओं को है चुनाव पूर्व सत्ता संगठन और संघ के बीच तालमेल नहीं बना तो यह राज्य भी बीजेपी के हाथों से खिसक सकता है,
क्योंकि यहां झामुमो, कांग्रेस और झाविमों के साथ विपक्ष की एकजुटता भाजपा सरकार को अभी से शिकन दे रही है।
अब देखना यह है कि इस बार पांच राज्यों में हुए चुनाव के आगामी 11 दिसंबर को क्या परिणाम सामने आते हैं। अगर, एग्जिट पोल के अनुरूप परिणाम आते हैं तो निश्चित ही मान के चलिए कि लोकसभा चुनाव बेहद रोमांचक होने जा रहा है।

Thursday 6 December 2018

क्यों राह से भटक गई भाजपा?

क्यों राह से भटक गई भाजपा ?
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं,
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं...।

भाजपा ने सत्ता में आने से पहले जिस तरह का विश्वास लोगों के बीच जगाया, वह फुस्स होता नजर आ रहा है, क्योंकि सरकार ने जो दावे किए थे वे कहीं से भी पूरे होते नहीं दिख रहे हैं। नरेंद्र मोदी की जो साहसिक नेता होने की छवि रही है, वह कारगर होती नहीं दिख रही है। ऐसे में, इस बात की संभावना से बिल्कुल भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस सरकार का हश्र भी कांग्रेसी सरकार की तरह ही न हो जाए।
सरकार की कहानी का वर्णन करने से पहले एक नजर भाजपा के इतिहास पर डालना जरूरी है। असल में, 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ ने अपनी विचारधारा को देश के राजनीतिक पटल पर पहुंचान के लिए सबसे पहले 'जनसंघ’ के नाम से राजनीतिक पार्टी बनाई। देशवासियों के बीच कार्य करने को दम भरते हुए 'जनसंघ’ परिस्थितिवश 6 अप्रैल 198० से 'भारतीय जनता पार्टी बन’ गई।
समय बीतता गया। संघ की विचारधारा और उनकी पाठशाला से शिक्षित राजनेताओं पर जनता का विश्वास बढ़ता गया और एक दिन आया, जब संघ कि विचारधाराओं से ओत-प्रोत यशस्वी व्यक्तित्व के धनी अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने। उस दौर में कई बड़े कार्य किए गए, जिससे भारत की छवि में काफी सुधार हुआ। हर मोर्चे पर देश मजबूत हुआ, लेकिन वाजपेयी सरकार को 'फील गुड’ का फार्मुला निगल गया। उसके बाद पुन: कांग्रेस की वापसी हुई। डॉ. मनमोहन सिंह छवि र्इमानदार पीएम के रूप में रही, जिसकी वजह से उन्हें दो कार्यकाल मिल गए, लेकिन आगे यह ज्यादा नहीं चल सका और गुजरात में मुख्यमंत्री के तौर पर कार्य कर रहे नरेन्द्र मोदी साहसिक निर्णय लेने के कारण भाजपा सहित देश की जनता के बीच लोकप्रिय नेता के रूप में उभरे।
कांग्रेस सरकार की विफलताओं से ऊब चुकी देश की जनता ने पूर्ण बहुमत के साथ भाजपा और नरेन्द्र मोदी पर विश्वास किया। पिछले साढ़े चार वर्षों से केन्द्र में भाजपा की सरकार है। कुछ इसी तरह की परिस्थिति नवसृजित राज्य झारखंड में बनी। पूर्ण बहुमत के अभाव में बराबर त्रिशंकू सरकार बनने के कारण झारखंड की जनता ने भाजपा पर विश्वास किया और पार्टी ने राज्य की बागडोर रघुवर दास को सौंप दी। जमशेदपुर पूर्वी विधान सभा में 1995 से लगातार विधायक बनने का रिकार्ड वह बना चुके थे। उनके इस रिकार्ड के पीछे जनता का पूर्ण समर्थन था। समर्थन क्यों न हो, कभी पार्टी लीक से हटकर इन्होंने बस्ती विकास समिति का गठन कर यहां अतिक्रमित बस्ती में बसे लोगों को मालिकाना हक दिलाने हेतु लंबी लड़ाई लड़ी, विकास कार्यों को विधायक रहते गति दी।  परंतु सरकार के निर्णय के खिलाफ 6 दिसंबर को विपक्षी एकता का जो स्वरूप दिखा वह चौंकाने वाले हैं केन्द्र और राज्य में भाजपा की सरकार से जनता की उम्मीदें बढ़ गईं, लेकिन आज जनता निराश है, क्योंकि सरकार के कुछ निर्णय चौंकाने वाले हैं।
भारत की जनता ने भाजपा को राम मंदिर बनवाने, धारा-37० को समाप्त करने, समान नागरिकता का कानून लागू करने के लिए चुना था, लेकिन सरकार ने किया क्या? राम मंदिर निर्माण को कोर्ट के फैसले के सहारे छोड़ दिया, धारा-37० हटाने की बात को ठंडे बस्ते में डाल दिया और समान नागरिकता कानून की जगह हिंदू समुदाय को बांटने के लिए पिछड़ वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दे दिया। वहीं, जिस एससी/एसटी कानून से अन्य वर्ग प्रताड़ित था, और उच्चतम न्यायालय ने इसे समाजोपयोगी एवं तर्क संगत बनाया था, उसे और कठोर बनाने का बिल संसद से पास करा कर लागू करने की योजना चल रही है। बताया जा रहा है कि इस बिल में प्रथम सूचना पर चाहे वह झूठी ही क्यों ना हो, गिरफ्तारी का प्रावधान कर रहे हैं, वहीं झूठी रिपोर्ट लिखाने वाले पर कार्यवाही का कोई प्रावधान नहीं कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट द्बारा दिए गए निर्णय को वोट के लालच में उलट कर समाज विरोधी कार्य करने जा रहे हैं। क्या आप समझते हैं कि ऐसा करने से एससी/एसटी वोट भाजपा को मिलेगा या इनका वोट पूर्व निर्धारित पार्टियों को जाएगा या असंतुष्ट सामान्य वर्ग का वोट भाजपा से कट जाएगा।
अंग्रेजों वाली नीति 'बांटो और राज करो’ पर कांग्रेस चल कर के अपने अंजाम को जा चुकी है, अब वही नीति भाजपा अपना कर उसी तरफ जा रही है। इससे निश्चित ही
'माया मिले न राम’ वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही है। अच्छा होता सरकार अपना पूरा जोर लगाकर राम मंदिर बनवाती, धारा-37० हटवाती और पिछड़ा वर्ग, एससी/एसटी का चक्कर छोड़कर समान नागरिक कानून लाती। राजधर्म छोड़कर एक को मलाई, एक को पिटाई की नीति भारी पड़ जाएगी। घोषित योजनाओं के क्रियान्वयन पर बल देती, वास्तविक सतही परिस्थिति को पहचान कर देशहित में राष्ट्र धर्म सर्वोपरि है को चरितार्थ करती। कुल मिलकार असंतोष बढ़ रहा है। सरकार और संगठन को इस पर ध्यान देने की जरूरत है।

Tuesday 4 December 2018

यूपी में कब होगी खत्म हिंसा!

यूपी में कब खत्म होगी हिंसा!
देवानंद सिंह
बुलंदशहर की घटना ने एक बार फिर सूबे की सियायत को गरमा दिया है। यह घटना जितनी दर्दनाक है, उतनी ही सियायत को कठघरे में खड़ा करने वाली भी है। राजनीतिक पार्टियां इस घटना पर भले ही अपनी सियायत चकमाने में कसर न छोड़े, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब प्रदेश में पुलिस के अफसर ही सुरक्षित नहीं हैं तो आम जनता का हाल क्या होगा? गोकशी की अफवाह पर भीड़ ने जिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की जान ले ली, उन्हें पहले ही धमकियां मिल रही थी। क्या पुलिस के आला महकमे और शासन को इसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए था? अगर, ऐसा होता तो शायद सुबोध कुमार आज जिंदा होते। अब चिंता इस बात की है कि प्रदेश में कब तक सुबोध कुमार सिंह जैसे इंस्पेक्टर भीड़ और सियासत की भ्ोंट चढ़ते रहेंगे। सरकार के पास क्या विकल्प है कि वह ऐसी ह्दयविदारक घटनाओं में रोक लगाने में सफल हो सके, क्योंकि बुलंदशहर पहला ऐसा क्ष्ोत्र नहीं है, जहां इस तरह की घटना हुई है। वह भी महज योगी राज में। इससे पूर्व कासगंज में भी इस तरह की घटना सामने आ चुकी है। अगर, ऐसी घटनाओं से सरकार और पुलिस का उच्च महकमा सुधरने की कोशिश नहीं कर रहा है तो यह पुलिस और सरकार की नाकामी को इंगित करने के लिए काफी है। लिहाजा, सरकार से उम्मीद की जानी चाहिए कि वह हिंसक घटनाओं से निपटने के कुछ उपाय खोजे और बड़े स्तर पर बैठे उन अधिकारियों पर नकेल कसे, जो घटना से पूर्व नहीं जागते हैं और ऐसी हिसंक घटनाओं से सबक लेने की जरूरत नहीं समझते हैं।

संघ सत्ता और संगठन को एक मंच पर आने की जरूरत

*संघ, सत्ता और संगठन को एक मंच पर आने की जरूरत*
"लुटे सियासत की मंडी में और झूठी रुसवाई में ,
जाने कितना वक़्त लगेगा रिश्तों की तुरपाई में...!"
देवानंद सिंह
याद कीजिए 2014 सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री रघुवर दास ने अपने भाषण में यह संकेत दिया था कि भाजपा की सरकार बस्ती वासियों गरीबों किसानों और मेहनतकश मजदूरों पर टिका होगा  लेकिन सत्ता चलाते वक्त उनमें कॉरपोरेट की कारपेट ,बस्ती वासियों की आवाज दबाने की कोशिश ,कारपोरेट घराने की मनमानी पर खामोशी ,बहुसंख्यक जनता को मुश्किल में डालने वाले निर्णय निकले दूसरी तरफ झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉक्टर अजय कुमार हर बार हर मुद्दे पर सरकार को घेरने का प्रयास किया है आसान शब्दों में कहें तो सरकार गरीबों की हितेषी विपक्ष की नजर में नहीं है विपक्ष में यह बदलाव विपक्षी सोच से नहीं बल्कि रघुवर दौर में राज्य के ़ बिगड़ते हालातों के बीच जनता के सवालों से निकलता है  सबसे बड़ा सवाल आने वाले वक्त में यही है क्या राज्य स्तरीय नीतियां वोट बैंक की परखे  या वोट बैंक की व्यापकता राज्य स्तरीय नीतियों के दायरे में आ जाएगी क्योंकि संकट राज्य में चौतरफा है जिसके दायरे में बस्ती वासियों के साथ साथ किसान मजदूर दलित महिलाएं युवा सभी हैं सवाल सिर्फ संवैधानिक संस्थाओं को बचाने भर का नहीं है बल्कि राजनीतिक व्यवस्था को भी संभालने का है जो कारपोरेट की पूंजी तले मुश्किल में पड़े हर तबके को वोटर मानती है
जमशेदपुर में बस्ती वासियों की बात करें तो विगत 4 वर्षों में जो हालात पैदा हुए हैं उससे कुछ फायदा भी हुआ है और कुछ नुकसान भी हुआ है विपक्ष नुकसान को मुद्दा बना रहा है जबकि सरकार बे घरों को घर देकर अपनी पीठ थपथपा ने का असफल प्रयास कर रही है  मुख्यमंत्री रघुवर दास बस्ती वासियों की राजनीत करते करते मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचे हैं  बस्ती वासियों से उनका लगाव जग जाहिर है संघ संगठन  इतर मुख्यमंत्री  रघुवर दास का  बस्ती विकास समिति 90 के दशक में सशक्त  रूप से उभरा था जो अब दरकता दिखाई देने लगा है विपक्ष अब उन्हीं मुद्दे को लेकर उन्हें घेरने का प्रयास कर रही है  हालांकि भाजपा की पूर्वी सिंहभूम जिला कमेटी विपक्ष के हल्ला बोल का करारा जवाब देने में अब तक कुछ हद तक सफल रही है
मुख्यमंत्री रघुवर दास के गृह क्षेत्र जमशेदपुर की सड़कें एक बार फिर बस्ती वासियों के नारों से गूंज रही है बस्ती वासियों को विपक्ष अपने साथ लेकर बार बार सड़क पर उतर रही है कवि मुख पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी तो कभी डॉक्टर अजय कुमार तो कभी झामुमो के बैनर तले कुछ तो बात है विपक्ष मुद्दा बनाने के प्रयास में है और मुख्यमंत्री को पूरे राज्य के विकास को देखना है विपक्ष को मात देने के लिए मुख्यमंत्री के पास जो विकल्प हैं पहला भाजपा संगठन दूसरा आर एस एस और तीसरा बस्ती विकास समिति पूरे प्रकरण की गहराई से पड़ताल करें तो बस्ती विकास समिति इस मुद्दे पर भी विफल नजर आ रही है जबकि संघ के लोग मुख्यमंत्री से अंदर ही अंदर खुन्नस खाए हैं  सिर्फ जिला भाजपा  अध्यक्ष दिनेश कुमार  विपक्ष को जवाब देने का भरसक प्रयास संगठन के माध्यम से कर रहे हैं
ऐसा नहीं है कि मुख्यमंत्री विकास को गति देने में विफल रहे हैं कार्यकर्ताओं को तरजीह नहीं देते हैं लेकिन उन्हें अपने तरीके को बदलने की जरूरत है और जो जमशेदपुर में फिजा बन रही है वह किसी भी परिपेक्ष में सही नहीं है  सवालों से  घिरा  सफर का जो अवधारणा बन रहा है उसको सत्ता संगठन और संघ के प्रयास से ही दूर किया जा सकता है

Monday 3 December 2018

पारा शिक्षकों के मामले में सरकार

*विकास को गति देने के लिए सरकार को हठ छोड़ने की जरूरत*
दिल्ली की नजरे उन पांच राज्यो के चुनाव पर है जिसका जनादेश 2019 की सियासत को पलटाने के संकेत भी दे सकता है और कोई विकल्प है नहीं तो खामोशी से मौजूदा सत्ता को ही अपनाये रह सकता है । वाकई सियासी गलियारो की सांसे गर्म है  घडकने बढी हुई है । एेसे समय में पारा शिक्षकों की हड़ताल झारखंड सरकार की गले की फांस बनती जा रही है
क्योकि जीत हार इस वार बहुत हद तक पारा शिक्षकों के परिवार वोटर को तय करनी है जिसकी पहचान शिक्षा के विकास पुरुष के  तौर पर है  ग्रामीण क्षेत्रों के शिक्षा का भार इनके कंधे पर है और इनकी सोच बहुत स्पष्ट है
बीजेपी नहीं तो काग्रेस या फिर  रधुवर नहीं तो हेमंत सोरेन ।
गजब की सियासी बिसात झारखंड के सामने आ खडी हुई है

राष्ट्र संवाद के ब्लॉग में आप सबका स्वागत है

आप सब का हार्दिक हार्दिक अभिनंदन है

भाजपा के लिए खतरे की घंटी है कल्‍पना सोरेन की सियासी मैदान में धमाकेदार एंट्री

देवानंद सिंह आखिरकार पूर्व सीएम हेमंत सोरेन की पत्‍नी कल्‍पना सोरेन की पत्‍नी कल्‍पना सोरेन की सियासी मैदान में एंट्री हो गई है, बकायदा, उन्...