Sunday 29 September 2024

खाद्य सुरक्षा और उपभोक्ता जागरूकता जरूरी

देवानंद सिंह 


खाद्य पदार्थों में हो रही मिलावट के बढ़ते मामले काफी चिंताजनक हैं। खासकर उत्तर प्रदेश में, जहां खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता और सुरक्षा पर लगातार सवाल उठ रहे थे। इन आरोपों के मद्देनजर, उत्तर प्रदेश सरकार ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए सभी खाद्य दुकानों पर संचालक, प्रबंधक और मालिक का नाम प्रदर्शित करने का आदेश दिया है। इसके अलावा सरकार ने होटलों, रेस्तरां और खाद्य सामग्री बेचने वाली दुकानों पर काम करने वाले शेफ़ और कर्मचारियों के लिए मास्क के साथ दस्ताने पहनना भी अनिवार्य करने और सीसीटीवी कैमरा लगाने के आदेश भी दिए हैं। 


निश्चित रूप से, यह आदेश न केवल खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने की दिशा में एक ठोस प्रयास है, बल्कि यह उपभोक्ता जागरूकता को भी बढ़ावा देगा। उल्लेखनीय है कि दो महीने पहले भी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में पुलिस ने कांवड़ यात्रा मार्ग पर खाने-पीने का सामान बेचने वाले दुकानदारों को बड़े-बड़े स्पष्ट अक्षरों में नाम लिखने के आदेश दिए थे, जिन पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम रोक लगा दी थी, हालांकि तब सीसीटीवी कैमरा, मास्क और दस्ताने की बात शामिल नहीं थी।



इस कड़ी में नए आदेश का पहला और सबसे महत्वपूर्ण पहलू खाद्य सुरक्षा है। खाद्य मिलावट के मामलों में तेजी से वृद्धि हुई है, जिससे उपभोक्ताओं का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है। मिलावट के कारण न केवल खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता घटती है, बल्कि यह कई बीमारियों का कारण भी बन सकता है। इसलिए, जब उपभोक्ताओं को यह जानकारी मिलेगी कि उनके द्वारा खरीदे गए खाद्य पदार्थों का संचालक या मालिक कौन है, तो वे आसानी से शिकायत कर सकेंगे और जिम्मेदार लोगों को पकड़ने में मदद कर सकेंगे। दूसरा पहलू उपभोक्ता जागरूकता को बढ़ावा देने का है। जब उपभोक्ता जानेंगे कि किसके द्वारा उनके खाद्य पदार्थ बेचे जा रहे हैं, तो वे अधिक सजग होंगे। यह पहल उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाने में सहायक होगी और उन्हें अपने स्वास्थ्य के प्रति अधिक जिम्मेदार बनाएगी।


इस आदेश का सामाजिक प्रभाव भी महत्वपूर्ण है। खाद्य सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर लोगों की जागरूकता बढ़ेगी, जिससे उपभोक्ताओं में एक नया विश्वास पैदा होगा। जब लोग जानेंगे कि खाद्य सामग्री का स्रोत क्या है, तो वे न केवल सुरक्षित खाद्य पदार्थ खरीदने के लिए प्रेरित होंगे, बल्कि यह स्थानीय व्यापारियों के लिए भी एक प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति का निर्माण करेगा। वहीं, आर्थिक दृष्टिकोण से भी यह आदेश महत्वपूर्ण है।


खाद्य व्यवसाय करने वालों को अपने कार्यों में पारदर्शिता लाने के लिए प्रेरित करेगा। उन्हें अपने उत्पादों की गुणवत्ता और प्रमाणिकता को बनाए रखने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। इससे बाजार में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का माहौल बनेगा, जो अंततः उपभोक्ताओं के लिए फायदेमंद साबित होगा। निश्चित रूप से आम नागरिकों के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए यह एक सकारात्मक पहल है। सरकार ये कर रही है तो बहुत सोच-विचार कर ही कर रही होगी। इसे लागू करने के लिए जो भी ज़रूरी क़दम हैं, वो उठाए जाने चाहिए और क़ानून और संविधान के दायरे में रहकर ही कार्रवाई की जानी चाहिए। 


जहां तक इस आदेश का बाजार पर पड़ने वाले प्रभाव को देखें तो उसे कई दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। सबसे पहले, यह खाद्य उत्पादों की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने का एक तरीका है। जब खाद्य विक्रेता जानेंगे कि उन्हें अपनी पहचान प्रदर्शित करनी है, तो वे अधिक सतर्क रहेंगे और अपने उत्पादों में मिलावट करने से बचेंगे। इससे बाजार में गुणवत्तापूर्ण उत्पादों की उपलब्धता बढ़ेगी।दूसरा, उपभोक्ताओं की मांग में बदलाव आ सकता है। जब उपभोक्ता अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होंगे, तो वे उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादों की मांग करेंगे, इससे बाजार में उन विक्रेताओं को बढ़ावा मिलेगा जो उच्च गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थ प्रदान करते हैं, जबकि मिलावट करने वाले विक्रेताओं को नुकसान होगा।


कुल मिलाकर यही कहा जाना चाहिए कि उत्तर प्रदेश सरकार का खाद्य दुकानों पर संचालक, प्रबंधक और मालिक का नाम प्रदर्शित करने का आदेश एक महत्वपूर्ण कदम है, जो खाद्य सुरक्षा और उपभोक्ता जागरूकता को बढ़ावा देने में सहायक होगा। यह न केवल स्वास्थ्य के लिहाज से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह एक स्वस्थ बाजार व्यवस्था का निर्माण करने में भी सहायक होगा। यदि, इस आदेश को प्रभावी ढंग से लागू किया जाता है, तो यह खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता में सुधार और उपभोक्ताओं के विश्वास को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

इस दिशा में आगे बढ़ते हुए, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि इस आदेश का सही पालन किया जाए और सभी संबंधित पक्ष इस प्रयास में भागीदार बनें। केवल तभी हम एक सुरक्षित और स्वस्थ खाद्य वातावरण की दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं।

बेहतर भविष्य की दिशा में कदम बढ़ाने की जरूरत

देवानंद सिंह 


पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा झारखंड के साथ अंतरराज्यीय सीमा को अचानक बंद करने का निर्णय एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा बन चुका है। इस फैसले का प्रभाव न केवल दोनों राज्यों के संबंधों पर पड़ेगा, बल्कि आम लोगों के जीवन पर भी गहरा असर डालेगा।

पश्चिम बंगाल और झारखंड के बीच की सीमा को बंद करने का निर्णय एक ऐसी स्थिति में लिया गया, जब दोनों राज्यों के बीच पहले से ही कुछ मतभेद थे। इन मतभेदों की जड़ें राजनीतिक प्रतिद्वंदिता और संसाधनों के वितरण से जुड़ी हुई हैं।





पश्चिम बंगाल सरकार का तर्क है कि यह निर्णय राज्य की सुरक्षा और विकास को ध्यान में रखते हुए लिया गया है। वहीं, झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) का कहना है कि यह निर्णय उनके लोगों के लिए आर्थिक संकट उत्पन्न कर सकता है। सीमा बंद होने से दोनों राज्यों के व्यापार पर नकारात्मक असर पड़ेगा। झारखंड खनिज संपदा के लिए जाना जाता है, अगर वहां से पश्चिम बंगाल में आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई रुक जाएगी तो इससे पश्चिम बंगाल में महंगाई बढ़ने की आशंका रहेगी। दूसरी ओर, झारखंड के व्यापारी भी नुकसान में रहेंगे क्योंकि वे अपनी बिक्री खो देंगे।


वहीं, दोनों राज्यों के बीच की सीमाएं केवल भौगोलिक नहीं हैं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक भी हैं। सीमाबंदिशों के कारण लोगों के बीच अविश्वास भी बढ़ सकता है। स्थानीय लोगों के बीच अविश्वास का वातावरण बनेगा, जो लंबी अवधि में सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करेगा। जेजेएम द्वारा आवश्यक सामानों की सप्लाई रोकने की धमकी एक नई राजनीतिक टकराव की ओर संकेत करती है। इससे दोनों राज्यों के बीच राजनीतिक बयानबाजी तेज होगी, जिससे स्थिति और बिगड़ सकती है। यदि, यह स्थिति बनी रही, तो राजनीतिक स्थिरता को खतरा हो सकता है। सीमा बंद होने के कारण यात्रियों को भी समस्या का सामना करना पड़ेगा। जो लोग रोज़मर्रा के काम के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य में यात्रा करते हैं, उन्हें बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। इससे रोजगार पर भी असर पड़ेगा।


इसके अलावा सीमाबंदिशों का सीधा असर आम जनता पर पड़ेगा। आवश्यक सामान जैसे कि खाद्य वस्तुएं, दवाइयां और अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएं संकट में पड़ जाएंगी, इससे लोगों की जीवनशैली में व्यवधान उत्पन्न होगा। यदि, यह स्थिति लंबे समय तक बनी रहती है तो इसका असर दोनों राज्यों की विकास दर पर भी पड़ेगा। निवेशक ऐसे अस्थिर वातावरण में निवेश करने से कतराएंगे, जिससे आर्थिक विकास में बाधा आएगी। इसके अलावा, युवाओं के लिए रोजगार के अवसर भी सीमित हो जाएंगे, जो कि राज्य के भविष्य के लिए चिंताजनक है।


ममता बनर्जी ने तकनीकी तौर पर बॉर्डर सील करने की वजह यह बताई है कि झारखंड से आने वाली गाड़ियां बाढ़ के पानी में बह न जाएं, लेकिन अगर बात यही होती तो झारखंड की तरफ से जरूरी सामानों की सप्लाई रोकने की धमकी नहीं आती। बता दें कि झारखंड में विपक्षी गठबंधन की सरकार है और तृणमूल कांग्रेस भी विपक्षी खेमे का ही हिस्सा मानी जाती है। ऐसे में, इन दोनों सरकारों के बीच इस तरह का विवाद विपक्ष की राजनीति को लेकर भी कोई अच्छा संदेश नहीं दे रहा।


इस स्थिति के समाधान के लिए संवाद और बातचीत की आवश्यकता है। दोनों राज्यों की सरकारों को मिलकर काम करना होगा ताकि सामान्य हितों को ध्यान में रखते हुए निर्णय लिए जा सकें। दोनों राज्यों की सरकारों को मिलकर एक मंच स्थापित करना चाहिए, जहां पर दोनों पक्ष अपनी समस्याएं साझा कर सकें और एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझ सकें। वहीं, सीमावर्ती क्षेत्रों में सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता है, जिससे लोगों के बीच का विभाजन कम हो सके। यह सांस्कृतिक और सामाजिक एकता को बढ़ावा देगा। दोनों राज्यों को मिलकर आर्थिक विकास के लिए योजनाएं बनानी चाहिए। इससे न केवल व्यापार बढ़ेगा, बल्कि रोजगार के अवसर भी सृजित होंगे। यदि, सुरक्षा चिंताओं के चलते सीमा बंद की गई है तो दोनों राज्यों को मिलकर सुरक्षा उपायों को बेहतर बनाने पर ध्यान देना चाहिए, ताकि आवश्यक सामानों की आपूर्ति निर्बाध रूप से चलती रहे।


निश्चित रूप से यही समय है कि दोनों राज्यों की सरकारें एक जिम्मेदार और संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाएं ताकि आम लोगों की जीवनशैली पर नकारात्मक प्रभाव कम हो सके। संवाद और सहयोग की भावना को बढ़ावा देकर ही इस संकट का समाधान निकाला जा सकता है। इस परिस्थिति में समझदारी और सहिष्णुता की आवश्यकता है ताकि दोनों राज्य मिलकर एक बेहतर भविष्य की दिशा में बढ़ सकें।

सामंजस्य और समझदारी के साथ आगे बढ़ने की जरूरत

देवानंद सिंह 

भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर का हालिया बयान कि चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर सैनिकों की वापसी से जुड़ी समस्याएं 75% तक सुलझ गई हैं, महत्वपूर्ण है। यह बयान न केवल द्विपक्षीय संबंधों में एक संभावित सकारात्मक बदलाव का संकेत देता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि पिछले कुछ वर्षों में दोनों देशों के बीच तनाव के बावजूद संवाद और वार्ता का रास्ता खुला है। विदेश मंत्री जयशंकर के बयान के कुछ घंटों के भीतर ही ब्रिक्स देशों की एनएसए बैठक के लिए रूस गए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने अपने चीनी समकक्ष वांग यी से मुलाकात की। यी विदेश मंत्री भी हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण घटनाक्रम में नागरिक उड्डयन मंत्री राम मोहन नायडू ने अपने चीनी समकक्ष के साथ दोनों देशों के बीच सीधी उड़ानों की जल्द पुनर्बहाली से जुड़े पहलुओं पर बातचीत की। ये सारे प्रयास इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण हैं कि अगले महीने ब्रिक्स देशों की शिखर बैठक के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की मुलाकात होने वाली है।






दरअसल, भारत और चीन के बीच सीमा विवाद एक पुराना और जटिल मुद्दा है, जो कई दशकों से चल रहा है। 1962 का युद्ध, डोकलाम और लद्दाख में पिछले दो वर्षों में हुई झड़पें इस विवाद के बड़े उदाहरण हैं। इन घटनाओं ने दोनों देशों के बीच विश्वास की कमी और भू-राजनीतिक तनाव को बढ़ाया। पिछले वर्ष लद्दाख में हुई झड़प ने स्थिति को और भी जटिल बना दिया, जिससे भारत ने अपनी सैन्य तैयारियों को मजबूत किया और चीन ने अपनी सेना को बढ़ाया।



भारत और चीन के बीच गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प के बाद के चार वर्षों में दोनों पक्षों के बीच बातचीत के दर्जनों दौर हो चुके हैं। लेकिन यह पहला मौका है जब विदेश मंत्री ने इसमें हुई प्रगति को इस तरह सकारात्मक रूप में व्यक्त किया, जिसका एक अच्छा संदेश निकाला जा सकता है, जिसे इस मायने में अहम कहा जा सकता है कि इससे साथ-साथ चल रहे अन्य प्रयासों की भावना भी रेखांकित होती है। ऐसे में, यह महत्वपूर्ण है कि दोनों पक्षों ने शांति बनाए रखने के लिए ठोस कदम उठाने का प्रयास किया है। विदेश मंत्री का यह बयान दर्शाता है कि बातचीत के जरिए मुद्दों को सुलझाने में कुछ प्रगति हुई है। जब एस जयशंकर कहते हैं कि 75% समस्याएं सुलझ गई हैं, तो इसका अर्थ है कि कुछ प्रमुख मुद्दे, जैसे कि सैन्य तैनाती और सीमांकन पर सहमति बन रही है। हालांकि, यह ध्यान में रखना जरूरी है कि 25% समस्याएं अब भी मौजूद हैं। इसका मतलब है कि दोनों देशों के बीच कुछ मुद्दे अभी भी जटिल और संवेदनशील हैं, जैसे कि क्षेत्रीय दावे, बुनियादी ढांचे का विकास और स्थानीय नागरिकों की सुरक्षा आदि।


भारत और चीन के रिश्तों में सुधार न केवल इन देशों के लिए, बल्कि पूरे एशिया और विश्व के लिए भी महत्वपूर्ण है। भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और चीन का प्रभावशाली भू-राजनीतिक स्थान इन संबंधों को और अधिक महत्वपूर्ण बनाते हैं। यदि, दोनों देश सीमा विवाद को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने में सफल होते हैं, तो यह न केवल द्विपक्षीय व्यापार में वृद्धि करेगा, बल्कि क्षेत्रीय स्थिरता को भी बढ़ावा देगा, हालांकि जयशंकर का बयान सकारात्मक संकेत देता है, लेकिन इस प्रक्रिया में निरंतर संवाद और संवाद की आवश्यकता बनी हुई है। द्विपक्षीय वार्ता के माध्यम से ही दोनों पक्ष जटिल मुद्दों का समाधान निकाल सकते हैं। इस संदर्भ में, भारत को अपनी रणनीति को ध्यान में रखते हुए चीन के साथ एक संतुलित और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। इस सबके बीच भविष्य में भी कई चुनौतियों से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। चीन की आक्रामकता, उसकी सैन्य तैनाती और रणनीतिक विस्तार की नीतियां भारत के लिए चिंता का विषय हैं। इसके अलावा, भारत को अपनी आंतरिक सुरक्षा और सीमा क्षेत्रों के विकास पर ध्यान देने की आवश्यकता है, ताकि कोई भी स्थिति पुनः उत्पन्न न हो सके।


फिर भी वर्तमान परिदृश्य में एस जयशंकर का बयान भारत-चीन संबंधों में एक नई आशा की किरण पेश करता है। LAC पर सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया में हुई प्रगति दर्शाती है कि दोनों देश वार्ता और सहयोग के माध्यम से आगे बढ़ सकते हैं। हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि भारत अपनी सुरक्षा और क्षेत्रीय हितों की रक्षा करते हुए एक ठोस रणनीति बनाए रखे। यदि, दोनों देश सामंजस्य और समझदारी से आगे बढ़ते हैं, तो न केवल वे अपने संबंधों को सुधार सकते हैं, बल्कि एक स्थायी शांति की दिशा में भी कदम बढ़ा सकते हैं। भारत और चीन के बीच का यह संवाद और समझौता न केवल एशिया के लिए, बल्कि वैश्विक स्थिरता के लिए भी महत्वपूर्ण है। 


भविष्य में, दोनों देशों को एक-दूसरे के साथ संतुलित और सकारात्मक तरीके से आगे बढ़ने की आवश्यकता है।सामान्य रिश्तों के लिए सीमा पर सामान्य स्थिति बहाल होने के साथ ही एक-दूसरे पर भरोसा होना भी जरूरी है। उसके लिए दोनों पक्षों के व्यवहार में पारदर्शिता होनी चाहिए। कुल मिलाकर, रिश्तों की बेहतरी के लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है, लेकिन दोनों पक्ष अगर इसकी इच्छा जता रहे हैं तो यह भी अच्छी बात है। जहां चाह होती है, वहां राह निकलना बहुत कठिन नहीं होता है।

Tuesday 24 September 2024

क्या भाजपा को चुनावी माइलेज देगा घुसपैठियों का मुद्दा ...?

देवानंद सिंह

झारखंड विधानसभा चुनाव में बांग्लादेशी घुसपैठ और एनआरसी लागू करने का मुद्दा छाए रहने की संभावना है। बीजेपी लगातार इस मुद्दे पर मुखर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गत दिनों जमशेदपुर जनसभा में संबोधन के दौरान झारखंड की बदल रही डेमोग्राफी और बांग्लादेशी घुसपैठ के जिक्र के बाद यह तय हो गया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में बीजेपी इसे प्रमुखता से उठाएगी और इस मुद्दे को उस समय तरजीह मिल गई जब राज्यसभा के पूर्व सांसद राकेश सिन्हा ने प्रधानमंत्री मोदी के बातों को जमशेदपुर में दोहरा दिया
इसमें कोई शक नहीं है कि झारखंड के संताल परगना में बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी घुसपैठ हुई है। इससे संबंधित क्षेत्र की डेमोग्राफी बदल गई है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि बीते कुछ दशकों से इस क्षेत्र में आदिवासियों की संख्या लगातार घटती जा रही है। संताल क्षेत्र में कभी आदिवासियों की आबादी 44 प्रतिशत थी, जो वर्तमान में घटकर 28 प्रतिशत रह गई है। झारखंड में सिर्फ घुसपैठ ही नहीं मतांतरण और पलायन भी हो रहा है। केंद्र सरकार के पास घुसपैठियों की पहचान करने और उन्हें वापस भेजने की क्षमता है, लेकिन इसके लिए एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) लागू करना जरूरी है।

 
 
बंगाल से झारखंड में आने वाले घुसपैठियों का मुद्दा उस समय और भी गर्म हो गया है, जब से कई अध्ययन और रिपोर्टें इस बात का संकेत देती हैं कि अवैध प्रवासियों की संख्या में वृद्धि हो रही है। स्थानीय निवासियों का यह आरोप है कि ये घुसपैठिए उनकी सांस्कृतिक पहचान और संसाधनों पर असर डाल रहे हैं। दरअसल, झारखंड की सीमाएं पश्चिम बंगाल से सटी हुई हैं और इस क्षेत्र में स्थानीय लोगों के बीच अवैध प्रवासियों को लेकर बढ़ती चिंता का मुद्दा भाजपा के लिए एक संवेदनशील और आकर्षक चुनावी नारा बन सकता है। पार्टी इस मुद्दे को उठाकर स्थानीय जनता के बीच अपनी साख और विश्वसनीयता बढ़ाने की भरपूर कोशिश करेगी।



 
 
दरअसल, यह मुद्दा न केवल सांस्कृतिक और सामाजिक पहलुओं से जुड़ा हुआ है, बल्कि यह चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता भी रखता है। भाजपा ने हमेशा से अपने राजनीतिक विमर्श में सुरक्षा और प्रवासन के मुद्दों को प्रमुखता दी है और झारखंड में यह मुद्दा विशेष रूप से प्रासंगिक हो गया है। भाजपा हमेशा से “विकास” और “सुरक्षा” के मुद्दों को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल करते आई है। लिहाजा, झारखंड विधानसभा चुनाव में बंगाल के घुसपैठियों के मुद्दे को भाजपा इस तरह पेश कर सकती है कि यह न केवल झारखंड के निवासियों की सुरक्षा से जुड़ा है, बल्कि यह विकास और रोजगार के अवसरों को भी प्रभावित कर रहा है। भाजपा इस मुद्दे को उठाकर निश्चित ही यह दिखाना चाहेगी कि कैसे अवैध प्रवासी स्थानीय संसाधनों पर बोझ डालते हैं, जिससे रोजगार की संभावनाएं कम होती हैं। इसके साथ ही, पार्टी यह भी सुनिश्चित कर सकती है कि स्थानीय लोगों को उनकी पहचान और संस्कृति की रक्षा के लिए एक मजबूत नेतृत्व चाहिए, हालांकि, इस मुद्दे को उठाने के साथ कुछ चुनौतियां भी हैं।
 
झारखंड के कुछ हिस्सों में घुसपैठियों को लेकर धारणा विभाजित है। कुछ समुदायों में यह विचार हो सकता है कि घुसपैठियों ने स्थानीय अर्थव्यवस्था में योगदान दिया है, खासकर कृषि और निर्माण क्षेत्रों में। ऐसे में, भाजपा को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनका संदेश सभी समुदायों तक पहुंचे और किसी भी तरह के सामाजिक तनाव को बढ़ाने से बचा जाए। इसके अलावा, विपक्षी दल इस मुद्दे को भाजपा के लिए एक दोधारी तलवार के रूप में पेश कर सकते हैं। ऐसा देखने को मिल रहा है।
 
बांग्लादेशी घुसपैठ पर मुखर रही भाजपा को जवाब देने के लिए जेएमएम ने सरना धर्म कोड का सहारा लिया है।
जेएमएम का कहना है कि बीजेपी द्वारा गुजरात और असम से तय एजेंडे को जनता ठुकरा देगी और चुनाव परिणाम वही होगा, जो 2019 के विधानसभा चुनाव में हुआ था। केन्द्र सरकार आदिवासियों के सरना धर्मकोड पर चुप क्यों है, राज्य सरकार के पिछड़ों का आरक्षण बढ़ाने संबंधी प्रस्ताव को आखिर क्यों लटका कर रखी है ? झारखंड का बकाया 136 करोड़ क्यों नहीं दे रही है ? बहरहाल, बंगलादेशी घुसपैठ पर सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने सामने हैं, जाहिर तौर पर यह मुद्दा फिलहाल शांत होता नहीं दिख रहा है, इसीलिए यह मुद्दा विधानसभा चुनाव तक छाया रहेगा। अगर, विपक्ष इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने में सफल होता है तो तो भाजपा को इसकी प्रतिक्रिया में सावधानी बरतने की बहुत अधिक आवश्यकता होगी।
 
ऐसे में, भाजपा को चाहिए कि वह चुनावी अभियान में केवल घुसपैठियों का मुद्दा ही नहीं, बल्कि स्थानीय मुद्दों को भी प्राथमिकता दे। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे मुद्दे स्थानीय लोगों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। इन मुद्दों को संबोधित करके पार्टी अपने चुनावी वादों को मजबूत कर सकती है। इसके अलावा, भाजपा को चाहिए कि वह स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं के माध्यम से एक मजबूत जनसमर्थन नेटवर्क तैयार करे। स्थानीय स्तर पर किए गए विकास कार्यों को उजागर करने से पार्टी को अपनी साख को और बढ़ाने में मदद मिलेगी।
 
यदि, भाजपा इस मुद्दे को समझदारी से उठाती है और इसे स्थानीय समस्याओं से जोड़ती है तो यह निश्चित रूप से चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकता है, लेकिन इसके लिए पार्टी को अपनी रणनीति को संतुलित रखना होगा, ताकि समाज में कोई दरार न आए और सभी वर्गों का विश्वास जीत सके। इसके इतर, झारखंड में भाजपा की चुनावी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह स्थानीय मुद्दों को कैसे समझती है और उनका समाधान कैसे प्रस्तुत करती है। घुसपैठियों का मुद्दा एक अच्छा उपकरण हो सकता है, लेकिन इसे समझदारी और संवेदनशीलता के साथ उठाना होगा।
 

Saturday 8 June 2024

नई सरकार में देखने को मिलेगा बहुत कुछ नया

देवानंद सिंह 


लोकसभा 2024 आम चुनावों के बाद यह तय हो चुका है कि एनडीए सरकार बनाने जा रही है और रविवार को मोदी कैबिनेट का शपथ ग्रहण समारोह होना है। मंत्रालयों के बंटवारे को लेकर तरह-तरह की चर्चाएं चल रही हैं। गठबंधन सरकार होने की वजह से इस बार मंत्रालयों के बंटवारे में बहुत कुछ नया देखने को मिल सकता है और सरकार चलाने की परिस्थितियों में बदलाव देखने को मिलेगा, क्‍योंकि 10 साल से बहुमत वाली सरकार का नेतृत्‍व करने वाले नरेंद्र मोदी को पहली बार गठबंधन सरकार चलाने का अनुभव होगा। इस बार बीजेपी बहुमत से दूर रह गई, लिहाजा, इस बार सही मायनों में एनडीए की सरकार नजर आएगी और राजनीतिक तौर पर इसका असर संसद में भी देखने को मिलेगा। 





ऐसे में, उम्मीद की जानी चाहिए कि संसद भी सुचारू रूप से चले और जनता के मुद्दों का हल हो, क्‍योंकि जनता ही प्रतिनिधियों को एक उम्‍मीद के साथ चुनकर संसद में भेजती है, लेकिन इस बार का चुनाव निश्चित ही भारत के लोकतंत्र की बेहद खुबसूरत तस्‍वीर कही जा सकती है, क्‍योंकि जनादेश जैसा भी हो, वही लोकतंत्र की असली जीत है। इतना ही नहीं, यह सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत बड़ा और कड़ा संदेश भी है। बीजेपी के लिए तो खासकर यह कड़ा संदेश है कि जनता कभी भी किसी को भी चुन सकती है। कई बार पूर्ण बहुमत वाली सरकार अपनी मनमर्जी करने लगती हैं, ऐसे में जनता बदलाव को तरजीह देती है। ऐसा ही इस बार भी देखने को मिला।


जनता ने बीजेपी के लिए स्पष्ट मत जाहिर किया है कि उनसे जुड़े मुद्दों की अनदेखी नहीं की जा सकती है। बीजेपी के हिसाब से बेशक मंदिर, आर्टिकल-370 जैसे मुद्दों ने बड़ा काम किया, लेकिन ये सब अपनी जगह हैं, पर सरकार को जनता के मुद्दों भी विचार करना होगा और काम भी करना पड़ेगा। लिहाजा, सरकार के कामकाज में जनता के महत्‍वपूर्ण मुद्दों को जगह मिलनी ही चाहिए। बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।


अगर, विपक्ष की बात करें तो विपक्ष के लिए भी संदेश है कि अगर, आप जनता के मुद्दों को उठाते रहेंगे तो जनता आपका साथ देगी, इस बार के चुनाव में यह स्‍पष्‍ट रूप से देखने को मिला। यह संसद में एक मजबूत विपक्ष के लिए भी महत्‍वपूर्ण था, इससे सत्‍ता पार्टी अपनी मनमर्जी से नहीं कर पाएगी। लिहाजा, यह जनादेश लोकतंत्र की बहुत बड़ी जीत है। इसका एक और पहलू यह है कि अब नई लोकसभा में भी एक बहुमत की सरकार होगी, बहुमत की सरकार मतलब कि एनडीए गठबंधन की सरकार होगी, लेकिन साथ ही एक मजबूत विपक्ष भी वहां खड़ा होगा। इससे देश की सत्ता को चलाने की जो व्यवस्था है, वो ज्यादा सुचारू रूप से चलती हुई दिखाई पड़ेगी। जिस तरह से हमने पहले देखा कि कानून बनाने, कई बिलों को पास करने में लंबी-चौड़ी चर्चा नहीं होती थी। कई बार एकतरफा फैसले लिए जाते थे, उससे हटकर अब संसद में एक स्वस्थ चर्चा होगी।


दस वर्षों के बाद पहली बार सही मायनों में बीजेपी एक तरह से गठबंधन सरकार चलाएगी, इससे पहले भी कहने को तो साझा सरकार थी, लेकिन बीजेपी का ही अपना बहुमत था। एक तरह से पहली बार पीएम मोदी को साझा सरकार चलाने का अनुभव होगा। सारे गठबंधन को साथ लेकर चलना होगा। विपक्ष के साथ- साथ अपने सहयोगियों को भी साथ लेकर चलना चाहिए। इसी कारण यह कहा जा सकता है कि इस बार बातचीत का दौर ज्यादा दिखाई देगा। साझा सरकार चलाने के लिए सहयोगियों पार्टियों के साथ नियमित रूप से परामर्श और संवाद करना होगा। विपक्ष की भूमिका भी अहम रहेगी, जो भारत जैसे लोकतंत्र में जरूरी है। सरकार भी कोशिश करेगी कि विपक्ष बात को ठीक से सुने और विपक्ष द्वारा जो जरूरी मुद्दे उठाए जा रहे हैं, उन पर गंभीरता से विचार किया जाए, जो एक स्‍वस्‍थ्‍य लोकतंत्र के लिए अत्‍यंत आवश्‍यक है।

स्मृति ईरानी को ले डूबा अहंकार और बड़बोलापन

किशोरी मैजिक के आगे हो गईं धराशायी

धीरज कुमार सिंह 


चुनाव परिणामों के बाद एनडीए बहुमत में है और सरकार बनाने की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। भाजपा को अकेले दम पर बहुमत नहीं मिलने पर तरह-तरह की चर्चाएं हो रही हैं, कुछ मंत्रियों के हारने पर तो जैसे लोग जश्न मना रहे हैं, इनमें सबसे पहला नाम है केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी का। उनका घमंड जिस आसमान पर था, वह उसी गति के साथ नीचे भी गिर गया। कांग्रेस के किशोरी मैजिक के आगे उनकी तिकड़में बिल्कुल भी काम नहीं आयी। कांग्रेस प्रत्याशी किशोरलाल ने अमेठी लोकसभा सीट से  भाजपा उम्मीदवार स्मृति से 1 लाख 18 हजार से ज्यादा वोटों से हराया। 




इस तरह कांग्रेस ने अपने गढ़ अमेठी पर फिर से लगभग कब्जा कर लिया है। एक समय यही अमेठी कांग्रेस का औसत कहा जाता था, लेकिन 2019 में बदलाव आया। उस सीट से स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी को हराकर जीत हासिल की, लेकिन पांच साल बाद किशोरी लाल शर्मा ने  स्मृति ईरानी को हराकर सियासी तस्वीर ही बदल दी है। 

चुनाव जीतने के एक साल बाद फिर से अमेठी में हवा बदलने लगी। इस बार दरअसल स्मृति ईरानी ने स्थानीय जनता को अपनी हरकतों से काफी नाराज कर लिया था। दूसरी तरफ किशोरी लाल लगातार जनता से जुड़कर काम करते रहे।


स्मृति के हारने पर सोशल मीडिया पर उन्हें काफी ट्रोल किया जा रहा है, लोग तरह-तरह के कमेंट कर रहे हैं। लोग कह रहे हैं आप एक्टर ही ठीक थी, आपको राजनीति में नहीं आना चाहिए था। 

एक यूजर ने लिखा, "आपके ईगो और घमंड के कारण आप चुनाव हारी हैं।" यूजर ने आगे लिखा, आप अपनी हार के लिए अमेठी के लोगों को दोष क्यों दे रही हैं। यह आपका सरासर घमंड था, जिसकी कीमत आपको अमेठी में चुकानी पड़ी। जीवन के लिए सबक - लोगों को कभी कम मत समझो और राहुल गांधी से कभी खिलवाड़ मत करो।" वहीं एक अन्य यूजर ने लिखा, "आप तुलसी ही ठीक थी, क्या जरूरत थी नेता बनने की।" ऑल्ट न्यूज के को-फाउंडर मोहम्मद जुबैर ने भी स्मृति ईरानी को नहीं बख्शा है। जुबैर ने कमेंट में लिखा, "आपने अपना ज्यादातर समय लोकल रिपोर्टर और स्ट्रिंगर्स को धमकाने में बिताया है।"

मोहम्मद जुबैर ने ट्विटर पर लिखा, "मोदी अब शिक्षा, विश्वविद्यालय, गरीबी, अर्थव्यवस्था, डिजिटल इंडिया, प्रौद्योगिकी आदि के बारे में बोल रहे हैं। चुनावी रैलियों के दौरान वह मुसलमान, मंगलसूत्र, मुजरा, मटन, मुगल, मछली, मुस्लिम लीग, घुसपेटिया, जियादा बच्चे, लव जिहाद, वोट जिहाद, जमात… में व्यस्त थे।" इसे शेयर करते हुए प्रकाश राज ने लिखा, "आदतें बड़ी मुश्किल से मरती हैं.. कट्टरवादी हमेशा कट्टर होता है।"

  उधर, यूजर्स के कमेंट पर स्मृति ईरानी ने इंस्टाग्राम और ट्विटर पर लिखा,"ऐसा ही जीवन है… मेरे जीवन का एक दशक एक गांव से दूसरे गांव तक जाने, जीवन बनाने, आशा और आकांक्षाओं का पोषण करने, बुनियादी ढांचे पर काम करने - सड़कें, नाली, खड़ंजा, बाईपास, मेडिकल कॉलेज और बहुत कुछ बनाने में गया। जो लोग मेरे साथ हार और जीत में खड़े रहे, मैं हमेशा उनकी शुक्रगुजार रहूंगी। जो आज जश्न मना रहे हैं उन्हें बधाई। और जो पूछ रहे हैं, "हाउज द जोश? मैं अब भी कहूंगी- अब भी हाई सर।"


गांधी परिवार का अमेठी से बहुत पुराना रिश्ता


गांधी परिवार का अमेठी से रिश्ता बहुत पुराना है। 1977 में राजीव गांधी के भाई संजय पूर्वी उत्तर प्रदेश की इस सीट से उम्मीदवार बने। तब दिल्ली के मसनद में इंदिरा गांधी की सरकार थी। लेकिन उसका गद्दा डोल रहा था। देशभर में इंदिरा विरोधी हवा चलने लगी। संजय गांधी इसे झेल नहीं पाये, लेकिन तीन साल बाद 1980 के लोकसभा चुनाव में संजय अमेठी से सांसद बन गए। विमान दुर्घटना में संजय की असामयिक मृत्यु के बाद 1981 में अमेठी में उपचुनाव हुआ। राजीव वह चुनाव जीत गए। 1991 के लोकसभा चुनाव के दौरान लिट्टे बम विस्फोट में राजीव की मृत्यु के बाद, कांग्रेस ने राजीव के करीबी सहयोगी सतीश शर्मा को अमेठी से मैदान में उतारा। वह भी जीते।

क्या भविष्य में पलटी मार लेंगे नीतीश..?

देवानंद सिंह 


सरकार के तीसरे कार्यकाल को लेकर कई बातें मीडिया में चल रहीं हैं। भले ही अभी मोदी सरकार बनाने में कामयाब हो जाएं, लेकिन क्या वह पांच साल तक सरकार चला पाएंगे, क्योंकि नीतीश कभी भी पलटी मार सकते हैं, इसीलिए तरह-तरह के सवाल सियासी गलियारों में चल रहे हैं। 


  नीतीश कभी भी पलटी मार सकते हैं, इस बात को लेकर इसीलिए भी चर्चा हो रही है, क्योंकि इसकी वजह यह भी है कि नीतीश कुमार एनडीए की बैठक में शामिल होने के लिए जिस फ्लाइट से दिल्ली गए, उसी प्लेन से तेजस्वी यादव इंडिया गठबंधन की बैठक में भाग लेने दिल्ली जा गए। अब इस संयोग को हवा इस रूप में लग गई कि क्या यात्रा के दौरान इंडिया गठबंधन में लौटने को लेकर बात तो नहीं हुई? इस शंका को बल इसलिए भी मिला कि खबर आ रही थी कि एनसीपी नेता शरद पवार ने नीतीश कुमार से बात की। मीसा भारती का बयान आया कि चाचा आ जाओ।





नीतीश कुमार की राजनीतिक जीवन मे हार-जीत का दौर चलता रहा है। कई बार जब लोग उन्हें चुका हुआ मान लेते हैं तो वो फिर से उठकर खड़े हो जाते हैं, जितना वह उठकर खड़े होते हैं, ठीक उसी तरह पलटी भी मार लेते हैं। भारतीय राजनीति में नीतीश कुमार ऐसे अकेले नेता हैं, जो पलटी मारने के लिए मशहूर हैं। भले ही, इसे संयोग कह लें या हकीकत, कभी-कभी स्थितियां ऐसी बन जाती है। जहां पलटी मारने पर एक बड़ा स्पेस दिखाई पड़ता है।  लोकसभा चुनाव के परिणाम को ही देख लें तो नीतीश कुमार के पास पलटी मारने का स्पेस खुद-ब-खुद चला आया है। लोकसभा चुनाव 2024 में बिहार की 40 सीटों में से एनडीए को 30 सीटों पर जीत मिली है। जदयू को 12 सीटों पर सफलता मिली। ये संख्या बल इसलिए महत्वपूर्ण हो गया कि भाजपा को लोकसभा चुनाव में बहुमत नहीं मिली। एनडीए के अन्य दलों की सीटों को जोड़ दें तो वो संख्या 292 यानी बहुमत से 20 ज्यादा।


खतरा इसीलिए भी है, क्योंकि नीतीश कुमार ने दो-दो बार एनडीए और महागठबंधन का साथ छोड़ा है। साथ छोड़ने का कारण वो अपने आसपास के लोगों को बताते हैं। महागठबंधन का साथ छोड़ा तो बताया कि संजय झा ने कहा इसलिए एनडीए में चले आए। जब महागठबंधन के साथ गए तो ठिकरा ललन सिंह और विजेंद्र यादव पर फोड़ा था। ये राजनीतिक परिवर्तन के फैक्टर बनते हैं, आज भी नीतीश कुमार के पास ही हैं।


1974 में छात्र आंदोलन के साथ राजनीतिक जीवन का सफर शुरु करने वाले नेता नीतीश कुमार ने 1994 में जार्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर समता पार्टी का गठन किया था, जिसके बाद वे 1995 में लेफ्ट पार्टी के साथ गठबंधन में आकर चुनाव लड़ें, हालांकि नतीजा पक्ष में नहीं आने पर उन्होंने पलटी मारते हुए 1996 में एनडीए गठबंधन का दामन थाम लिया। इस गठबंधन के साथ उन्होंने काफी लंबी दूरी तय की और 2013 तक बिहार में सरकार बनाते रहें, जिसके बाद 2014 में जोरदार पलटी मारते हुए एनडीए को चुनौती डे डाली। उन्होंने 17 सालों तक एनडीए में काम करने के बाद 2014 लोकसभा चुनाव में खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। इस चुनाव में अकेली लड़ाई लडी और सफलता ना मिलने पर कांग्रेस का दामन थाम लिया। जिसके बाद 2015 बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने बीजेपी का बिहार से सफाया कर दिया, हालांकि दो साल सरकार चलाने के बाद नीतीश कुमार ने फिर पलटी मारी को आरजेडी-कांग्रेस से अलग हो गए। जिसके बाद नीतीश कुमार ने बीजेपी से पुराना रिश्ता जोड़ते हुए बिहार के मुख्यमंत्री पद का शपथ लिया। साथ ही बीजेपी नेता सुशील कुमार मोदी को उप मुख्यमंत्री बनाया। 


साल 2017 से लेकर 2022 के शुरुआती महीने तक बीजेपी और जेडीयू नेता नीतीश कुमार ने मिलकर बिहार में शासन किया, जिसके बाद नीतीश एक बार फिर नीतीश कुमार ने बीजेपी से पलड़ा झारते हुए आरजेडी का दामन थामा। डेढ़ साल तक सत्ता संभालने के बाद उन्होंने 28 जनवरी 2024 बीजेपी के साथ मिलकर नई सरकार बनाई और शपथ ग्रहण किया। आपको बता दें कि नीतीश कुमार अबतक 9 बार शपथ ग्रहण कर चुके हैं। वहीं, देश भर में राज करने वाली बीजेपी बिहार में अबतक एक बार भी मुख्यमंत्री पद नहीं ले सकी है। अब देखना होगा कि नीतीश पांच साल तक एनडीए गठबंधन में ही रहेंगे या फिर पलटी मारकर खेमा बदल लेंगे।

खाद्य सुरक्षा और उपभोक्ता जागरूकता जरूरी

देवानंद सिंह  खाद्य पदार्थों में हो रही मिलावट के बढ़ते मामले काफी चिंताजनक हैं। खासकर उत्तर प्रदेश में, जहां खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता और ...