देवानंद सिंह
Monday 4 March 2024
भाजपा के लिए खतरे की घंटी है कल्पना सोरेन की सियासी मैदान में धमाकेदार एंट्री
Sunday 3 March 2024
बीजेपी की पहली सूची में संतुलन बनाने की भरपूर कोशिश
बीजेपी की पहली सूची में संतुलन बनाने की भरपूर कोशिश
देवानंद सिंह
लोकसभा चुनावों के मद्देनजर जिस तरह से बीजेपी केंद्रीय चुनाव समिति ने 16 राज्यों में 195 उम्मीदवारों की सूची जारी की है, उससे राजनीतिक तौर पर कई संकेत मिलते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इस बार बहुत चेहरे बदलने का प्रयोग नहीं किया गया है। सामान्य रूप से देखा जाए तो बीजेपी अपने उम्मीदवारों की सूची मे बड़ी संख्या में चेहरे का बदलाव करती है, लेकिन इस बार अब तक जारी सूची में बदलाव केवल उन राज्यों में ही दिख रहा है, जहां विपक्षी गठबंधन का नया समीकरण उभरा है या फिर उम्मीदवार के खिलाफ भारी सत्ताविरोधी लहर चल रही हो।
बीजेपी की पहली सूची में 34 केंद्रीय मंत्रियों को भी स्थान मिला है। ऐसा माना जा रहा है कि उम्मीदवारों का चयन बीजेपी को 370 और राजग को 400 से अधिक सीटों के लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया गया है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर सर्वे कराने के बाद प्रदेश की चुनाव समितियों में उम्मीदवारों के नामों पर चर्चा हुई। प्रदेश चुनाव समितियों की रिपोर्ट के आधार पर प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा की मौजूदगी में हुई केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में उम्मीदवारों के चयन पर मुहर लगाई गई। 195 उम्मीदवारों वाली पहली सूची में पहला नाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का है, जो अपने पुराने क्षेत्र वाराणसी से तीसरी बार मैदान में होंगे। उनके साथ ही राजनाथ सिंह लखनऊ और अमित शाह गांधीनगर अर्जुन मुंडा खूंटी से फिर मैदान में होंगे।
राज्यसभा आए केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव को राजस्थान के अलवर, मनसुख मांडविया को गुजरात के पोरबंदर और राजीव चंद्रशेखर को केरल के तिरूअनंतपुरम से टिकट दिया गया है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री बिप्लव देब को भी टिकट मिला है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को कोटा से फिर से टिकट मिल गया है।
दिल्ली में मनोज तिवारी के छोड़कर अन्य चेहरे नए हैं। जहां कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन हुआ है, वहां बदलाव देखने को मिला है। पार्टी ने अब तक जारी पांच उम्मीदवारों की सूची में से चार नए नाम दिए हैं। नई दिल्ली से मंत्री मीनाक्षी लेखी का टिकट काटकर यहां नई कार्यकर्ता और सुषमा स्वराज की पुत्री बांसुरी स्वराज को उम्मीदवार बनाया है। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में कुछ नामों के बदलाव का बड़ा कारण यह भी है कि वहां कई सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ाया गया था। उधर, केरल में कांग्रेस के दिग्गज नेता एके एंटनी के बेटे अनिल एंटनी और अभिनेता सुरेश गोपी के साथ तिरुवनंतपुरम से शशि थरूर के खिलाफ केंद्रीय मंत्री राजीव चंद्रशेखर को चुनाव मैदान में उतार कर भाजपा ने केरल के तिलिस्म तोड़ने की भी रणनीति बनाई है। वहीं, पिछले दिनों भाजपा में शामिल हुई कांग्रेस की सांसद गीता कोडा को सिंहभूम से टिकट दिया गया है।
इसी तरह से बसपा को छोड़कर भाजपा में आने वाले रितेश पांडेय को भी अंबेडकरनगर से उम्मीदवार बनाया गया है। कुल मिलाकर, बीजेपी ने अपनी पहली सूची में सभी वर्गों, समाज और जातियों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की है, इनमें 34 महिलाएं, 27 अनुसूचित जाति, 18 अनुसूचित जनजाति और 57 ओबीसी से आते हैं।
वहीं, युवा शक्ति को अहमियत देते हुए 50 साल से कम उम्र के 47 युवाओं को भी मैदान में उतारा गया है, लेकिन आने वाली सूचियों में क्या बदलाव होंगे यह देखना महत्वपूर्ण होगा।
Friday 1 March 2024
हिमाचल संकट व चिराग कोल्हान तो बस झांकी है, कांग्रेस को अपने परंपरागत गढ़ों में झुलसाएगी राम मंदिर बायकॉट की तपिश
हिमाचल संकट व चिराग कोल्हान तो बस झांकी है, कांग्रेस को अपने परंपरागत गढ़ों में झुलसाएगी राम मंदिर बायकॉट की तपिश
देवानंद सिंह
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जिस कांग्रेस के अंदर सब ठीक नहीं चल रहा है, जो अच्छा संकेत नहीं है, क्योंकि हर तरफ कांग्रेस को झटके पर झटके लग रहे हैं। हिमाचल में आए सियासी को ले लें या फिर झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा का पार्टी दामन छोड़कर बीजेपी का दामन थामने का प्रकरण हो। यहां तक कि अयोध्या में बने राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम से दूरी बनाकर भी कांग्रेस ने बड़ी गलती कर दी, निश्चित ही इससे लगता है कि कांग्रेस को राम मंदिर बायकॉट की तपिश परंपरागत गढ़ों में भी झुलसाएगी। कांग्रेस इस सियासी नुकसान को पचा पाएगी, यह बहुत बड़ा सवाल है।
हिमाचल में भले ही सुक्खू सरकार पर मंडरा रहे संकट के बादल फ़िलहाल तो टलते दिख रहे हैं, लेकिन ये हालात कब तक ठीक रहेंगे, इसका भरोसा नहीं है, क्योंकि अभी हालात सामान्य नहीं हैं, हालांकि बाहरी तौर यह दिखाने की कोशिश की जा रही है कि सरकार में सबकुछ ठीक है और सुक्खू सरकार चलती रहेगी। पर्यवेक्षक सरकार के संकट को बागी नेताओं से बात करके दूर करने की कोशिशों में जुटे हुए हैं, लेकिन देखने वाली बात यह होगी कि आखिर पार्टी अदरूनी गुटबाजी को खत्म करने में कब कामयाब हो पाती है। जिस गुटबाजी की वजह से छह विधायकों को अयोग्य घोषित किया गया है, उसने राजनीतिक हालात और पेचीदा बना दिया है। विधानसभा के स्पीकर कुलदीप पठानिया ने कांग्रेस के इन छह विधायकों के वकीलों की दलीलों को सुनने के बाद उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया। हिमाचल के राजनीतिक इतिहास में यह इस तरह का पहला मामला है।
वैसे इस मामले से पार्टी के अंदर स्थिति सामान्य होने के बजाय और जटिल होगी। यह कहा जा रहा है कि ये विधायक बीजेपी की ओर जा सकते हैं, उससे प्रदेश में बीजेपी को मजबूती मिलेगी, इससे न केवल सुक्खू सरकार पर संकट बढ़ेगा, बल्कि आगामी लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस को नुकसान झेलना पड़ेगा। राज्य के इन हालातों के बाद निश्चित ही बीजेपी के अंदर उत्साह का माहौल है। बीजेपी के पास 25 विधायक हैं, लेकिन राज्यसभा चुनाव में अपने कैंडिडेट हर्ष महाजन को जिताने के बाद वह और भी ताक़तवर दिख रही है। कांग्रेस के छह विधायकों के अयोग्य घोषित होने के बाद हिमाचल विधानसभा में विधायकों की संख्या 68 से 62 हो गई है। फ़िलहाल, कांग्रेस के 34 और बीजेपी के 25 सदस्य हैं, यानी 62 सदस्यों की स्थिति में कांग्रेस के पास सामान्य बहुमत है। पर देखना होगा कि सुक्खू सरकार कब तक बरकरार रह पाती है।
झारखंड में भी जिस तरह कांग्रेस को उसके गढ़ में झटका लगा है, उसका असर लोकसभा चुनावों में अवश्य दिखेगा। कांग्रेस के इकलौते सांसद गीता कोड़ा को पार्टी में इंट्री करवाने के बाद अब भाजपा की नजर पच्छिमी सिंहभूम से कांग्रेस के इकलौते विधायक सोना राम सिंकु को अपने पाले में लाने की है। बताया जा रहा है कि भाजपा की कोशिश सोना राम सिंकू की नाराजगी को हवा देकर कांग्रेस से दूरी बनाने की है। दरअसल, झारखंड की कमान सौंपने वक्त ही बाबूलाल को झामुमो का सबसे मजबूत किला संताल कोल्हान को ध्वस्त करने की जिम्मेवारी सौंपी गयी थी, और इस टास्क को पूरा करने के लिए बाबूलाल कोल्हान के किसी बड़े सियासी चेहरे को भाजपा में शामिल करने को प्रयासरत थे, उनकी नजर गीता कोड़ा पर थी, आखिरकार वह गीता कोड़ा को बीजेपी में शामिल कराने में सफल हुए।
जहां तक राम मंदिर का सवाल है, राम मंदिर कार्यक्रम से दूरी बनाने का असर कांग्रेस पर दिख रहा है। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा खतरा इस बात का है कि इस बार उसके परंपरागत गढ़ उसके हाथ से छिटक सकते हैं, खासकर यूपी में। कांग्रेस का गढ़ मानी जाने वाली अमेठी-रायबरेली सीट पर सबकी निगाहें होंगी। दोनों ही सीटों के चुनाव गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी के लिए महत्वपूर्ण होंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि अभी पार्टी एक चुनौतीपूर्ण फेज से गुजर रही है। हिमाचल प्रदेश में देखे गए राजनीतिक उथल-पुथल का असर कांग्रेस पार्टी के गढ़ अमेठी और रायबरेली में भी देखने को मिल सकता है। शिमला से अमेठी और रायबरेली की दूरी करीब 1000 किलोमीटर से ज्यादा है, लेकिन वहां उठा तूफान जल्द ही उत्तर प्रदेश में गांधी परिवार के गढ़ को प्रभावित कर सकता है।
अमेठी सीट पर राहुल गांधी 2019 का लोकसभा चुनाव हार चुके हैं। उन्हें बीजेपी की दिग्गज नेता स्मृति ईरानी ने शिकस्त दी थी। वहीं, रायबरेली की बात करें तो अब तक यहां से सोनिया गांधी सांसद रही हैं। हालांकि, इस बार वो राज्यसभा चली गई हैं। ऐसे में, चर्चा है कि प्रियंका गांधी वाड्रा इस सीट से दावेदारी कर सकती हैं।
हालांकि, सूबे में जिस तरह का माहौल देखने को मिल रहा उसमें राम मंदिर मुद्दे पर कांग्रेस नेतृत्व के स्टैंड का असर इन सीटों पर आगामी लोकसभा चुनाव में नजर आ सकता है। इन हालातों में कांग्रेस अपने गढ़ को कैसे बचा पाएगी, यह देखना काफी दिलचस्प होगा।
गीता कोड़ा को साथ लेकर अपने प्रयोग में सफल हुई बीजेपी....!
क्या संदेशखाली मुद्दे को सियासी तूल देकर टीएमसी के लिए समस्या खड़ी कर पाएगी बीजेपी...?
Thursday 22 February 2024
समय के साथ-साथ बदल गया किसान आंदोलनों का स्वरूप
देवानंद सिंह
किसान प्रतिनिधियों और सरकार के नुमाइदों के बीच कई स्तर की बातचीत के बाद भी सहमति नहीं बन पा रही है। देश के कई बॉर्डर वाले हिस्सों से किसान दिल्ली कूच करने की तैयारी में हैं, लेकिन सरकार की भी पूरी कोशिश है कि किसानों को किसी भी तरह दिल्ली कूच ना करने दिया जाए, लेकिन यह सब कब तक चलता रहेगा, यह सबसे बड़ा सवाल है।
दरअसल, यूपी से लेकर पंजाब-हरियाणा के किसानों ने '13 फरवरी को 'दिल्ली चलो' का नारा बुलंद किया था। संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा ने फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के संबंध में कानून बनाने समेत विभिन्न मांगों को लेकर केंद्र सरकार पर दबाव डालने के तहत दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना देने का ऐलान किया है। इस आंदोलन को देश के 200 से अधिक किसान यूनियनों का समर्थन हासिल है। किसान एमएसपी के लिए
कानूनी गारंटी के अलावा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने, किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए पेंशन, कृषि ऋण माफी, पुलिस मामलों को वापस लेने और लखीमपुर खीरी हिंसा के पीड़ितों के लिए 'न्याय' की भी मांग कर रहे हैं। यह उन शर्तों में से एक है, जो किसानों ने तब निर्धारित की थी, जब वे 2021 में कृषि कानूनों के खिलाफ अपना आंदोलन वापस लेने पर सहमत हुए थे, लेकिन इस बार फिर ऐसे ही मांगों को लेकर किसान सड़क पर उतर आए, यह कब चलता रहेगा, यह तय नहीं है। वैसे, इतिहास के पन्नों को पलटकर देखा जाए तो
देश में 1858 से 1914 के बीच किसान आंदोलन की शुरुआत हुई थी, लेकिन तब के आंदोलन स्थानीय स्तर पर ही सीमित रहे, जिनका मुख्य कारण किसानों पर अत्याचार, भारतीय उद्योगों पर ब्रिटिश नीतियों का दुष्प्रभाव और अन्यायपूर्ण आर्थिक नीतियां थीं। किसानों को मनमाना लगान, अवैध टैक्स और बंधुआ मजदूरी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसके विरोध में किसानों ने वक्त-वक्त पर आंदोलन किए। इसी क्रम में 1920 से 1940 के बीच कई किसान संगठनों की स्थापना हुई, जिनमें बिहार प्रांतीय किसान सभा और
अखिल भारतीय किसान सभा प्रमुख थे। इन संगठनों ने जमींदारी प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई। 1858 और 1947 के बीच भारत में किसान आंदोलनों ने कई चरणों में विकास किया। 1914 से पहले ये आंदोलन लोकलाइज्ड, असंबद्ध और विशेष शिकायतों तक सीमित थे। 1914 के बाद गांधीजी के नेतृत्व में आंदोलन राष्ट्रवादी चरण में प्रवेश कर गए। 1859-62 बंगाल में नील की खेती करने वाले किसानों ने यूरोपीय बागान मालिकों के शोषण के खिलाफ विद्रोह किया था। वहीं, 1870-80 के बीच पाबना आंदोलन के तहत पूर्वी बंगाल में जमींदारों ने लगान और टैक्स बढ़ाए तो किसानों ने आंदोलन किया।
1875 में दक्कन के किसानों ने मारवाड़ी और गुजराती साहूकारों के शोषण के खिलाफ विद्रोह किया। 1917 में बिहार के चंपारण में नील की खेती करने वाले किसानों ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में जमींदारों के शोषण के खिलाफ आंदोलन किया। 1918 में गुजरात के खेड़ा में किसानों ने सूखे के बावजूद भू-राजस्व माफ करने से सरकार के इनकार के खिलाफ आंदोलन किया, जबकि 1928 गुजरात के बारदोली में किसानों ने लैंड रेवेन्यू बढ़ाने के खिलाफ सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में आंदोलन। यानी किसान अपनी मांगों को लेकर पहले से ही आंदोलन करते रहे है, लेकिन धीरे-धीरे जिस तरह इन आंदोलनों का स्वरूप बदल है, वह राजनीति से प्रेरित अधिक दिखाई देता है, क्योंकि इससे आम आदमी के जीवन पर बुरा असर पड़ रहा है, हर तरफ से राजधानी दिल्ली कैद है।
हालांकि, पंजाब- हरियाणा से किसानों के 13 फरवरी के दिल्ली कूच के ऐलान के बाद पुलिस ने दिल्ली-चंडीगढ़ हाइवे का रूट डायवर्ट किया हुआ है। वहीं, अंबाला और पंजाब की तरफ से आने वाले रास्तों पर ट्रैफिक बंद है। दिल्ली में सिंघु बॉर्डर के साथ ही गाजीपुर बॉर्डर, लोनी बॉर्डर, चिल्ला बॉर्डर, रजोकरी बॉर्डर, कापसहेड़ा बॉर्डर और कालिंदी कुंज-डीएनडी-नोएडा बॉर्डर पर सुरक्षा के इंतजाम किए गए हैं, लेकिन ये व्यवस्थाएं भी नाकाफी लग रही हैं।
Friday 12 May 2023
झारखंड बिहार वोटों के लिए करवट लेती सियासत…
देवानंद सिंह
झारखंड बिहार की राजनीति में हमेशा बहुत कुछ ऐसा होता है, जो अनुमानों से परे होता है। यहां की सियासत अपने ही अंदाज में अजीबोगरीब करवट लेती है, खासकर तब ज्यादा, जब चुनाव आने वाले होते हैं। अप्रैल के पहले पखवाड़े में जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य के जेल मैन्युअल में बदलाव किया तो अंदाज हो गया था, वो क्या करने वाले हैं। इसके साथ सूबे की सियासत करवट लेनी लगी। 30 साल पहले डीएम की हत्या में आजीवन कैद की सजा भुगत रहे आनंद मोहन सिंह के रिहा होने के बाद राज्य की राजनीति में नई सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है।वहीं ब्राह्मण युवा शक्ति संघ के द्वारा झारखंड में भूमिहार ब्राहमण को एक करने की कवायत शुरू कर दी गई है और अगर इसमें सफलता मिलती है तो राजनीति के दूरगामी परिणाम सामने आएंगे
दरअसल, सियासत अब गलत-सही, अच्छे-खराब से परे जाकर फायदों और वोट बैंक के रास्तों को राजमार्ग में बदलने में जुटी हुई है। झारखंड बिहार में उसी सियासी रास्ते का एक हिस्सा अब भूमिहार ब्राह्मण व आनंद मोहन सिंह बनने वाले हैं। सियासी हलकों में इस को लेकर चर्चा तेज है कि आनंद मोहन की रिहाई से कौन से तीर साधे जाने वाले हैं तो झारखंड सवर्ण को राजनीति की मुख्यधारा से धीरे-धीरे हटाने के बाद इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए थोड़ा पहले बिहार की राजनीति के अतीत में झांकना होगा फिर दूसरी कड़ी में झारखंड की बात करूंगा
*कभी सियासत की धूरी बना था सामाजिक न्याय*
दरअसल, पिछली सदी के आखिरी दशक में बिहार की राजनीति में सामाजिक न्याय का तानाबाना बड़ी जोर के साथ सियायत में तैरने लगा था। या यूं कहें कि यह शब्द भारतीय राजनीति की धुरी बन गया था। पिछड़े और दलित वर्ग को सत्ता में भागीदारी के नाम पर आई समाजवादी धारा की सरकारों ने जो नीतियां बनाईं, उनसे सवर्ण और पिछड़ों के बीच दूरियां बढ़ती चली गईं। उसी दौर में सामाजिक न्याय के बड़े चेहरे के रूप में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव उभरे। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव दूसरे चेहरे रहे। दोनों ही राजनेताओं ने सामाजिक न्याय के नाम पर राजकाज का जो तरीका अपनाया, उससे सवर्ण और पिछड़ों के बीच पैदा हुई खाई बढ़ती ही चली गई, जो मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद बननी शुरू हुई थी। इसी दौर में बिहार के कोसी इलाके से राजनीति के दो चेहरे उभरे। एक चेहरा पिछड़ावाद का पहरुआ था तो दूसरा उसका विरोधी। बिहार के कोसी अंचल में आज के पिछड़े वर्ग की प्रमुख जाति यादव के कई परिवारों की समृद्धि सवर्ण जमींदारों को भी मात देती है। ऐसे ही एक परिवार से उभरे राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव बाहुबली के रूप में उभरे। तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव का वरदहस्त उन पर था। तब उनका नाम रंगदारी में भी आगे आया। उनके निशाने पर सवर्ण समाज के लोग रहते थे तो दूसरी तरफ आनंद मोहन सवर्णों के पक्ष में खड़े होते रहे।
*सामाजिक न्याय की राजनीति को नहीं भाए थे आनंद मोहन*
आनंद मोहन चूंकि राजपूत जमींदार परिवार से हैं, लिहाजा वे तत्कालीन सामाजिक न्याय की राजनीति की आंख की किरकिरी बन गए थे। इसी दौर में आनंद मोहन की लालू यादव से अदावत बढ़ती गई। लालू के शासनकाल पर जंगलराज का आरोप लगा। उस जंगलराज और सवर्ण विरोधी हालात में आनंद मोहन सवर्ण तबके की उम्मीद बनकर उभरे। इसी दौर में जी कृष्णैया हत्याकांड हुआ, जिसमें वे फंस गए। 1994 में कृष्णैया की हत्या के समय बिहार में कहा जाता था कि तत्कालीन सरकार ने जानबूझकर अपने विरोधियों को इस हत्याकांड में फंसाया। उन्हीं दिनों बिहार में जनता दल से अलग होकर जार्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार ने समता पार्टी बनाई तो आनंद मोहन ने बिहार पीपुल्स पार्टी। दोनों में 1995 के विधानसभा चुनाव में समझौता हुआ, हालांकि सफलता नहीं मिली, जिसके बाद दोनों पार्टियां अलग हो गईं। यह बात और है कि उसी दौर में आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद ने एक उपचुनाव में वैशाली सीट से कांग्रेसी दिग्गज ललित नारायण शाही की बहू वीणा शाही को हराकर देश को चौंका दिया था। तब आनंद मोहन खुलकर लालू यादव का विरोध करते थे।
*एमवाई समीकरण बनाने में कामयाब रहे लालू यादव*
मंडलवाद और राममंदिर आंदोलन के बाद उभरी राजनीति में लालू यादव करीब 14 प्रतिशत आबादी वाले यादव और करीब 17 प्रतिशत वोटिंग आबादी वाले मुसलमान तबके को साथ मिलाकर एमवाई यानि माई समीकरण बनाने में कामयाब रहे। माई समीकरण के सहारे वे भूराबाल को ठेंगे पर रखते रहे। भूराबाल यानि भूमिहार, राजपूत, ब्रह्रामण और लाला यानि कायस्थ समुदाय। वो भूराबाल का सार्वजनिक उपहास करते रहे। उसे नीचा दिखाते रहे। माई समीकरण के साथ कुशवाहा, मुसहर और गैर पासवान दलित जातियों की गोलबंदी से वे सत्ता की सीढि़यां नापते रहे। बाद के दिनों में जब समता पार्टी उभरी तो उसने लवकुश का समीकरण रचा। लव यानि कुर्मी और कुश यानि कोइरी-कुशवाह समीकरण। बिहार की राजनीति में यह समीकरण करीब आठ फीसद मतदाताओं पर पकड़ रखता है। हालांकि, सवर्ण मतदाता इन दोनों ही राजनीति समूहों से अलग रहा, लेकिन 1996 में समता पार्टी ने जब भारतीय जनता पार्टी से समझौता किया तो समता पार्टी और भाजपा मिलकर लव-कुश और सवर्ण समुदायों को साधने में जुट गए।
*गठबंधन को 2005 में मिली पहली बार सफलता*
इस गठबंधन को सफलता पहली बार 2005 के विधानसभा चुनावों में मिली। तब भाजपा और समता पार्टी ने मिलकर इतिहास रच दिया था। इसके सामने लालू यादव का एमवाई खेत रहा। तब समूचा सवर्ण समुदाय, गैर यादव पिछड़ी जातियां और गैर पासवान दलित से लेकर 2015 के विधानसभा चुनावों तक तकरीबन यही समीकरण काम करता रहा। बाद के दिनों में नीतीश कुमार ने दलितों में अति दलित और पिछड़ों में अति पिछड़े समुदायों को अलग कर दिया। फिर ये जातियां लालू यादव के गठबंधन से दूर होती चली गईं, लेकिन इस बीच नीतीश कुमार ने दो बार पैंतरेबाजी की और भाजापा के इतर लालू का साथ ले लिया। भाजपा द्वारा नीतीश कुमार के साथ भविष्य में न जाने का ऐलान के बाद अब उनका दांवपेंच काम आता नहीं दिख रहा है।
लालू का एमवाई समीकरण भले ही बरकरार हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में नरेंद्र मोदी के उभार के बाद गैर यादव पिछड़ी जातियों में पार्टी की जबरदस्त पैठ बनी है। नीतीश कुमार की अपनी बिरादरी कुर्मी भी लालू यादव की पार्टी के साथ सहज महसूस नहीं कर रही है। इसीलिए उनके निर्वाचन क्षेत्र के अलावा तकरीबन हर जगह कुर्मी भी एमवाई समीकरण से अलग रुख दिखा रहा है। इस बीच उपेंद्र कुशवाहा को भाजपा ने तोड़कर एक तरह से लवकुश समीकरण को भी कमजोर कर दिया है। गैर पासवान दलित जातियों में भी भाजपा ने कड़ी सेंधमारी की है। रामविलास पासवान के परिवार में फूट के बाद पासवान समुदाय में भी पुरानी एकता नजर नहीं आ रही।
*कमजोर हुई सामाजिक न्याय की राजनीति*
इस बीच एक बदलाव राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति में भी हुआ है। लालू यादव के एमवाई समीकरण के बावजूद दो राजपूत नेताओं के साथ उनकी राजपूत समुदाय में पैठ की कोशिश जारी थी। रघुवंश प्रसाद सिंह और जगदानंद सिंह जैसे राजपूत नेता लालू यादव के साथ थे। इन संदर्भों में माना जा रहा है कि अब बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति कमजोर होने लगी है। अति पिछड़ों और अति दलितों में भाजपा की बढ़ती पैठ बाद सामाजिक न्याय के पुरोधाओं को अब उसी सवर्ण समाज से उम्मीदें बढ़ गईं हैं, जिन्हें गाली देते हुए उनकी राजनीति परवान चढ़ी है। पिछले कुछ साल से लालू यादव के बेटे तेजस्वी भूमिहारों की प्रशंसा करते नहीं थक रहे। आनंद मोहन के बेटे उनकी ही पार्टी से विधायक भी हैं। ऐसे में आनंद मोहन की रिहाई के बाद लगता है कि अब सामाजिक न्याय वाली राजनीति की उम्मीद राजपूत समुदाय से बढ़ गई है। बिहार में करीब आठ फीसदी राजपूत हैं, जो करीब नौ लोकसभा और 28 विधानसभा सीटों पर सीधे असर डालते हैं।
बाकी शायद ही कोई विधानसभा सीट होगी, जहां राजपूत जनसंख्या न होगी, इसीलिए अब नीतीश और तेजस्वी की जोड़ी आनंद मोहन के अतीत, उनके साथ अतीत में रही अदावत भुलाकर उनकी रिहाई के बहाने राजपूत समुदाय को लुभाने की कोशिश में जुट गई है। उसे लगता है कि अगर सत्ता उनके गठबंधन की ओर खिसकती दिखी तो राजपूत समुदाय हाथ बढ़ाने में देर नहीं लगाएगा, लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या लालू राज के दौरान राजपूतों और भूमिहारों के साथ जो अनाचार हुआ, क्या राजपूत समुदाय उसे सिर्फ आनंद मोहन की रिहाई उलटी पड़ सकती है। यह सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए दोहरे नुकसान की बात होगी, क्योंकि उनकी रिहाई जिस तरह से दलित स्वाभिमान और दलितों की उपेक्षा से जोड़कर देखा जा रहा है, उससे तो ऐसा ही लगता है।
*फायदे का सौदा होंगे आंनद मोहन*
राजनीतिक विशलेषकों का मानना है कि बिहार में महागठबंधन की राजनीति में वह नीतीश और लालू दोनों के लिए फायदे का सौदा साबित होंगे, चूंकि वह खुद राजपूत हैं। साथ ही भूमिहार और राजपूत समुदाय पर असर रखते हैं तो जेडीयू और आरजेडी की सियासी नाव को विधानसभा चुनावों में मदद दे सकते हैं। सीमांचल और कोसी की 28 विधानसभा सीटों पर उनके असर का दावा किया जा रहा है, हालांकि बिहार के ही एक नेता कहते हैं कि आनंद मोहन अगर सियासत में इन दो दलों के साथ आए तो दलित और पिछड़ा वोट उनसे छिटक भी सकता है, फायदे की गणित नुकसान में बदल सकती है। वैसे नीतीश कुमार और लालू को भरोसा है कि उनके दलों के वोटबैंक के साथ आनंद मोहन के जरिए राजपूत और भूमिहार वोट साथ आ गए तो विजयी समीकरण बना जाएगा।
बुधवार को राष्ट्र संवाद के अगली कड़ी में झारखंड की सियासत पर एक नजर
भाजपा के लिए खतरे की घंटी है कल्पना सोरेन की सियासी मैदान में धमाकेदार एंट्री
देवानंद सिंह आखिरकार पूर्व सीएम हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन की सियासी मैदान में एंट्री हो गई है, बकायदा, उन्...
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देवानंद सिंह आखिरकार पूर्व सीएम हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन की सियासी मैदान में एंट्री हो गई है, बकायदा, उन्...
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देवानंद सिंह झारखंड बिहार की राजनीति में हमेशा बहुत कुछ ऐसा होता है, जो अनुमानों से परे होता है। यहां की सियासत अपने ही अंदाज में अजीबोगरीब ...
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बीजेपी की पहली सूची में संतुलन बनाने की भरपूर कोशिश देवानंद सिंह लोकसभा चुनावों के मद्देनजर जिस तरह से बीजेपी केंद्रीय चुनाव...