Monday 4 March 2024

भाजपा के लिए खतरे की घंटी है कल्‍पना सोरेन की सियासी मैदान में धमाकेदार एंट्री

देवानंद सिंह


आखिरकार पूर्व सीएम हेमंत सोरेन की पत्‍नी कल्‍पना सोरेन की पत्‍नी कल्‍पना सोरेन की सियासी मैदान में एंट्री हो गई है, बकायदा, उन्‍हें दुमका से लोकसभा चुनाव 2024 के लिए प्रत्‍याशी बना दिया गया है, जिस तरह उन्‍होंने भावुक होकर लोगों के बीच अपना संदेश पहुंचाया, वह आने वाले चुनावों में गठबंधन के लिए बहुत बड़ी संजीवनी का काम कर सकता है। गिरिडीह की धरती पर झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी के 51वें स्थापना दिवस समारोह में जिस अंदाज में उन्होंने पार्टी का झंडा लहराया, वह पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ ही प्रदेश की जनता को भावुक करने वाला क्षण था, क्‍योंकि कल्‍पना सोरेने ने खुद ही बहुत ही भावुक अंदाज में अपना संबोधन दिया। उनकी इस अंदाज में की गई एंट्री को किसी धमाकेदार एंट्री से कम नहीं माना जा सकता है, जो निश्चित ही लोकसभा चुनावों में भाजपा को लिए परेशानी का सबब बनेगा।


कल्‍पना सोरेन ने केंद्र सरकार पर सीधा हमला बोलकर भाजपा को सीधे चुनौती देते हुए, उसके वोट बैंक में सेंध लगाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। उन्‍होंने स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कहा कि सूबे में जब से हेमंत सोरेन के नेतृत्व में सरकार बनी, तभी से दिल्ली में बैठी केंद्र की सरकार ने साजिश रचना शुरू कर दिया था। उन्‍होंने कहा कि जैसे-तैसे जन-जन के नेता हेमंत सोरेन को फंसाने की साजिश रची जाने लगी, केंद्र की मोदी सरकार झारखंडियों की अस्मिता के रक्षक हेमंत को झुकाने पर अड़ी रही। हेमंत ने झारखंड की अस्मिता बचाने के लिए झुकना वाजिब नहीं समझा तो उन्हें जेल में डाल दिया गया।


उन्‍होंने आगे भावुक अंदाज में कहा, रविवार को वह अपने जन्मदिन पर जेल गई और हेमंत से मिलीं। हेमंत ने उनके कांधे पर हाथ रखा और कहा कि हिम्मत नहीं हारना है। हेमंत ने कहा कि उन्हें जेल भेजा गया है, वे अभी जीवित हैं, हमें केंद्र की दमनकारी नीतियों से हर हाल में लड़ना होगा। निश्चित तौर पर कल्‍पना सोरेन की एंट्री सियासी तौर पर इसीलिए भी महत्‍वपूर्ण है, क्‍योंकि आने वाले दिनों में लोकसभा का महत्‍वपूर्ण चुनाव होना है और भाजपा के किले की ध्‍वस्‍त करने का गठबंधन हर संभव प्रयास कर रही है, लेकिन भाजपा ने कई ऐसे मुद्दों के माध्‍यम से गठबंधन की राजनीति का ध्‍वस्‍त करने का हर संभव प्रयास किया है, ऐसे में झारखंड जैसे आदिवासी बाहुल्‍य राज्‍य में सियासी हवा कल्‍पना सोरेन के चुनाव मैदान में उतरने से न बदले, इससे बिल्‍कुल भी इंकार नहीं किया जा सकता है।


कल्‍पना सोरेन ने भी इसे खुलेतौर पर जाहिर करने का प्रयास किया कि हेमंत की गिरफ्तारी से झारखंड की एक-एक जनता गुस्से में है। इस गुस्से को दबाना है और एक-एक वोट से केंद्र की सरकार को जवाब देना है। कल्‍पना सोरेने ने कहा कि केंद्र की भाजपा सरकार ने हेमन्त जी को जेल में नहीं डाला है,  बल्कि झारखण्ड के स्वाभिमान और आत्म-सम्मान को जेल में डाला है, इसका करारा जवाब मिलेगा। आने वाले वक्त में इसका करारा जवाब दिया जायेगा। आगे उन्‍होंने और भावुक अंदाज में कहा- मैं सोच कर आयी थी कि जैसा हेमन्त जी ने माननीय विधानसभा में कहा था कि "मैं आंसू नहीं बहाऊंगा, आंसू वक्त के लिए रखूंगा। केंद्र की भाजपा सरकार के लिए आंसू का कोई मतलब नहीं है।



 आदिवासी, दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यक के आंसुओं का इनके सामने कोई मोल नहीं है।", मैं भी आंसू नहीं बहाऊंगी। मगर, आप सभी के अथाह स्नेह और आशीर्वाद के सामने मैं अपने-आप को रोक न सकी। उन्‍होंने आगे कहा, जब तक झारखण्डी योद्धा हेमन्त सोरेन जी केंद्र सरकार और बीजेपी के षड्यंत्र को परास्त कर हम सब के बीच नहीं आ जाते, तब तक उनका यह एकाउंट, मेरे, यानी उनकी जीवन साथी कल्पना मुर्मू सोरेन द्वारा चलाया जाएगा। हमारे वीर पुरुखों ने अन्याय और दमन के खिलाफ हूल और उलगुलान किया था, अब फिर वह वक्त आ गया है।



झारखण्डवासियों और झामुमो परिवार के असंख्य कर्मठ कार्यकर्ताओं की मांग पर मैं सार्वजनिक जीवन की शुरुआत कर रही हूं। जब तक हेमन्त जी हम सभी के बीच नहीं आ जाते तब तक मैं उनकी आवाज बनकर आप सभी के बीच उनके विचारों को आपसे साझा करती रहूंगी, आपकी सेवा करती रहूंगी। आप सभी का स्नेह और आशीर्वाद पूर्व की भांति बना रहे। इस बीच उन्‍होंने लड़े हैं, लड़ेंगे! जीते हैं, जीतेंगे! का संदेश देकर चुनावी बिगुल भी फूंक दिया। कल्‍पना सोरेन की भावुकता में सभा में उपस्थित जनता भी भावुक हो गई और जिस तरह जनता ने उन्‍हें समर्थन किया, वह भी अपने-आप में अद्भुत था। मौजूद भीड़ ने भी उन्‍हें समर्थन देते हुए कहा, जेल का ताला टूटेगा, हेमंत सोरेन छूटेगा, जो इस बात का साफतौर पर दर्शा रहा था कि आगामी चुनावों को लेकर राज्‍य की जनता का क्‍या मूड है, निश्चिततौर पर कल्‍पना सोरेन की सियासी मैदान में एंट्री से झारखंड की सियासी तस्‍वीर बदलती हुई नजरर आने लगी है। हेमंत सोरेन के जेल चले जाने के बाद कयास लगाए जा रहे थे कि झारखंड में बीजेपी विपक्ष का सूपड़ा साफ कर सकती है, लेकिन अब ऐसा होता नहीं दिखाई दे रहा है, बल्कि अब परेशानी भाजपा के लिए खड़ी होने वाली है, क्‍योंकि कल्‍पना सोरेन ने जिस अंदाज में जनता से आशीर्वाद मांगा, उसे प्रदेश की जनता स्‍वीकार न करे, ऐसा संभव नहीं दिखता है। 

Sunday 3 March 2024

बीजेपी की पहली सूची में संतुलन बनाने की भरपूर कोशिश

बीजेपी की पहली सूची में संतुलन बनाने की भरपूर कोशिश 

 

देवानंद सिंह 



लोकसभा चुनावों के मद्देनजर जिस तरह से बीजेपी केंद्रीय चुनाव समिति ने 16 राज्यों में 195 उम्मीदवारों की सूची जारी की है, उससे राजनीतिक तौर पर कई संकेत मिलते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इस बार बहुत चेहरे बदलने का प्रयोग नहीं किया गया है। सामान्य रूप से देखा जाए तो बीजेपी अपने उम्मीदवारों की सूची मे बड़ी संख्या में चेहरे का बदलाव करती है, लेकिन इस बार अब तक जारी सूची में बदलाव केवल उन राज्यों में ही दिख रहा है, जहां विपक्षी गठबंधन का नया समीकरण उभरा है या फिर उम्मीदवार के खिलाफ भारी सत्ताविरोधी लहर चल रही हो।

 

 

बीजेपी की पहली सूची में 34 केंद्रीय मंत्रियों को भी स्थान मिला है। ऐसा माना जा रहा है कि उम्मीदवारों का चयन बीजेपी को 370 और राजग को 400 से अधिक सीटों के लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया गया है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर सर्वे कराने के बाद प्रदेश की चुनाव समितियों में उम्मीदवारों के नामों पर चर्चा हुई। प्रदेश चुनाव समितियों की रिपोर्ट के आधार पर प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा की मौजूदगी में हुई केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में उम्मीदवारों के चयन पर मुहर लगाई गई। 195 उम्मीदवारों वाली पहली सूची में पहला नाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का है, जो अपने पुराने क्षेत्र वाराणसी से तीसरी बार मैदान में होंगे। उनके साथ ही राजनाथ सिंह लखनऊ और अमित शाह गांधीनगर अर्जुन मुंडा खूंटी से फिर मैदान में होंगे।

 

राज्यसभा आए केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव को राजस्थान के अलवर, मनसुख मांडविया को गुजरात के पोरबंदर और राजीव चंद्रशेखर को केरल के तिरूअनंतपुरम से टिकट दिया गया है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री बिप्लव देब को भी टिकट मिला है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को कोटा से फिर से टिकट मिल गया है।

 

दिल्ली में मनोज तिवारी के छोड़कर अन्य चेहरे नए हैं। जहां कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन हुआ है, वहां बदलाव देखने को मिला है। पार्टी ने अब तक जारी पांच उम्मीदवारों की सूची में से चार नए नाम दिए हैं। नई दिल्ली से मंत्री मीनाक्षी लेखी का टिकट काटकर यहां नई कार्यकर्ता और सुषमा स्वराज की पुत्री बांसुरी स्वराज को उम्मीदवार बनाया है। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में कुछ नामों के बदलाव का बड़ा कारण यह भी है कि वहां कई सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ाया गया था। उधर, केरल में कांग्रेस के दिग्गज नेता एके एंटनी के बेटे अनिल एंटनी और अभिनेता सुरेश गोपी के साथ तिरुवनंतपुरम से शशि थरूर के खिलाफ केंद्रीय मंत्री राजीव चंद्रशेखर को चुनाव मैदान में उतार कर भाजपा ने केरल के तिलिस्म तोड़ने की भी रणनीति बनाई है। वहीं, पिछले दिनों भाजपा में शामिल हुई कांग्रेस की सांसद गीता कोडा को सिंहभूम से टिकट दिया गया है।

 

 

इसी तरह से बसपा को छोड़कर भाजपा में आने वाले रितेश पांडेय को भी अंबेडकरनगर से उम्मीदवार बनाया गया है। कुल मिलाकर, बीजेपी ने अपनी पहली सूची में सभी वर्गों, समाज और जातियों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की है, इनमें 34 महिलाएं, 27 अनुसूचित जाति, 18 अनुसूचित जनजाति और 57 ओबीसी से आते हैं।

 

वहीं, युवा शक्ति को अहमियत देते हुए 50 साल से कम उम्र के 47 युवाओं को भी मैदान में उतारा गया है, लेकिन आने वाली सूचियों में क्या बदलाव होंगे यह देखना महत्वपूर्ण होगा।

Friday 1 March 2024

हिमाचल संकट व चिराग कोल्हान तो बस झांकी है, कांग्रेस को अपने परंपरागत गढ़ों में झुलसाएगी राम मंदिर बायकॉट की तपिश

हिमाचल संकट व चिराग कोल्हान तो बस झांकी है, कांग्रेस को अपने परंपरागत गढ़ों में झुलसाएगी राम मंदिर बायकॉट की तपिश



देवानंद सिंह

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जिस कांग्रेस के अंदर सब ठीक नहीं चल रहा है, जो अच्छा संकेत नहीं है, क्योंकि हर तरफ कांग्रेस को झटके पर झटके लग रहे हैं। हिमाचल में आए सियासी को ले लें या फिर झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा का पार्टी दामन छोड़कर बीजेपी का दामन थामने का प्रकरण हो। यहां तक कि अयोध्या में बने राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम से दूरी बनाकर भी कांग्रेस ने बड़ी गलती कर दी, निश्चित ही इससे लगता है कि कांग्रेस को राम मंदिर बायकॉट की तपिश परंपरागत गढ़ों में भी झुलसाएगी। कांग्रेस इस सियासी नुकसान को पचा पाएगी, यह बहुत बड़ा सवाल है।



हिमाचल में भले ही सुक्खू सरकार पर मंडरा रहे संकट के बादल फ़िलहाल तो टलते दिख रहे हैं, लेकिन ये हालात कब तक ठीक रहेंगे, इसका भरोसा नहीं है, क्‍योंकि अभी हालात सामान्‍य नहीं हैं, हालांकि बाहरी तौर यह दिखाने की कोशिश की जा रही है कि सरकार में सबकुछ ठीक है और सुक्‍खू सरकार चलती रहेगी। पर्यवेक्षक सरकार के संकट को बागी नेताओं से बात करके दूर करने की कोशिशों में जुटे हुए हैं, लेकिन देखने वाली बात यह होगी कि आखिर पार्टी अदरूनी गुटबाजी को खत्म करने में कब कामयाब हो पाती है। जिस गुटबाजी की वजह से छह विधायकों को अयोग्य घोषित किया गया है, उसने राजनीतिक हालात और पेचीदा बना दिया है। विधानसभा के स्पीकर कुलदीप पठानिया ने कांग्रेस के इन छह विधायकों के वकीलों की दलीलों को सुनने के बाद उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया। हिमाचल के राजनीतिक इतिहास में यह इस तरह का पहला मामला है।

 

 

 

वैसे इस मामले से पार्टी के अंदर स्थिति सामान्‍य होने के बजाय और जटिल होगी। यह कहा जा रहा है कि ये विधायक बीजेपी की ओर जा सकते हैं, उससे प्रदेश में बीजेपी को मजबूती मिलेगी, इससे न केवल सुक्‍खू सरकार पर संकट बढ़ेगा, बल्कि आगामी लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस को नुकसान झेलना पड़ेगा। राज्‍य के इन हालातों के बाद निश्चित ही बीजेपी के अंदर उत्‍साह का माहौल है। बीजेपी के पास 25 विधायक हैं, लेकिन राज्यसभा चुनाव में अपने कैंडिडेट हर्ष महाजन को जिताने के बाद वह और भी ताक़तवर दिख रही है। कांग्रेस के छह विधायकों के अयोग्य घोषित होने के बाद हिमाचल विधानसभा में विधायकों की संख्या 68 से 62 हो गई है। फ़िलहाल, कांग्रेस के 34 और बीजेपी के 25 सदस्य हैं, यानी 62 सदस्यों की स्थिति में कांग्रेस के पास सामान्य बहुमत है। पर देखना होगा कि सुक्‍खू सरकार कब तक बरकरार रह पाती है।

 

 

 

झारखंड में भी जिस तरह कांग्रेस को उसके गढ़ में झटका लगा है, उसका असर लोकसभा चुनावों में अवश्य दिखेगा। कांग्रेस के इकलौते सांसद गीता कोड़ा को पार्टी में इंट्री करवाने के बाद अब भाजपा की नजर पच्छिमी सिंहभूम से कांग्रेस के इकलौते विधायक सोना राम सिंकु को अपने पाले में लाने की है। बताया जा रहा है कि भाजपा की कोशिश सोना राम सिंकू की नाराजगी को हवा देकर कांग्रेस से दूरी बनाने की है। दरअसल, झारखंड की कमान सौंपने वक्त ही बाबूलाल को झामुमो का सबसे मजबूत किला संताल कोल्हान को ध्वस्त करने की जिम्मेवारी सौंपी गयी थी, और इस टास्क को पूरा करने के लिए बाबूलाल कोल्हान के किसी बड़े सियासी चेहरे को भाजपा में शामिल करने को प्रयासरत थे, उनकी नजर गीता कोड़ा पर थी, आखिरकार वह गीता कोड़ा को बीजेपी में शामिल कराने में सफल हुए।

 

 

 

जहां तक राम मंदिर का सवाल है, राम मंदिर कार्यक्रम से दूरी बनाने का असर कांग्रेस पर दिख रहा है। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा खतरा इस बात का है कि इस बार उसके परंपरागत गढ़ उसके हाथ से छिटक सकते हैं, खासकर यूपी में। कांग्रेस का गढ़ मानी जाने वाली अमेठी-रायबरेली सीट पर सबकी निगाहें होंगी। दोनों ही सीटों के चुनाव गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी के लिए महत्वपूर्ण होंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि अभी पार्टी एक चुनौतीपूर्ण फेज से गुजर रही है। हिमाचल प्रदेश में देखे गए राजनीतिक उथल-पुथल का असर कांग्रेस पार्टी के गढ़ अमेठी और रायबरेली में भी देखने को मिल सकता है। शिमला से अमेठी और रायबरेली की दूरी करीब 1000 किलोमीटर से ज्यादा है, लेकिन वहां उठा तूफान जल्द ही उत्तर प्रदेश में गांधी परिवार के गढ़ को प्रभावित कर सकता है।

 

 

 

अमेठी सीट पर राहुल गांधी 2019 का लोकसभा चुनाव हार चुके हैं। उन्हें बीजेपी की दिग्गज नेता स्मृति ईरानी ने शिकस्त दी थी। वहीं, रायबरेली की बात करें तो अब तक यहां से सोनिया गांधी सांसद रही हैं। हालांकि, इस बार वो राज्यसभा चली गई हैं। ऐसे में, चर्चा है कि प्रियंका गांधी वाड्रा इस सीट से दावेदारी कर सकती हैं।

 

 

 

हालांकि, सूबे में जिस तरह का माहौल देखने को मिल रहा उसमें राम मंदिर मुद्दे पर कांग्रेस नेतृत्व के स्टैंड का असर इन सीटों पर आगामी लोकसभा चुनाव में नजर आ सकता है। इन हालातों में कांग्रेस अपने गढ़ को कैसे बचा पाएगी, यह देखना काफी दिलचस्प होगा।

गीता कोड़ा को साथ लेकर अपने प्रयोग में सफल हुई बीजेपी....!

गीता कोड़ा को साथ लेकर अपने प्रयोग में सफल हुई बीजेपी....!

देवानंद सिंह 

सिंहभूम से सांसद और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा ने कांग्रेस का दामन छोड़कर बीजेपी का दामन थामकर झारखंड में सियासी हलचल बढ़ा दी है। गीता कोड़ा का बीजेपी का दामन थामने के पीछे इसे बीजेपी का सियासी दांव कहा जाए या फिर झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व वाली सरकार में उनकी खराब होती जा रही स्थिति रही, हालांकि लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ये दोनों ही परिस्थितियां जिम्मेदार इसीलिए मानी जा सकती हैं, क्योंकि कांग्रेस में रहते जहां गीता कोड़ा को आगामी लोकसभा चुनावों में सिंहभूम से टिकट नहीं मिलने की अटकलें थीं, वहीं बीजेपी के पास सिंहभूम से चुनाव लड़ने के लिए कोई दमदार चेहरा नहीं था, 



इसीलिए गीता कोड़ा का कांग्रेस का दामन छोड़ना बीजेपी के लिए अच्छा संकेत माना जा सकता है। एक तरह से  सिंहभूम के लिए दमदार चेहरा खोजने का बीजेपी का प्रयोग सफल हुआ। द्दरासल, गठबंधन में ज्यादा भाव नहीं मिलने की वजह से गीता कोड़ा झारखंड में कांग्रेस, जेएमएम और आरजेडी गठबंधन पिछले काफी समय से नाखुश थीं। बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी की मौजूदगी में गीता कोड़ा ने पार्टी की सदस्यता लीं।


बता दें कि गीता गोड़ा 2009 से 2019 तक दो बार विधायक रह चुकी हैं। 2019 में पहली बार सिंहभूम लोकसभा सीट से सांसद चुनी गईं थी। गीता कोड़ा 2019 में कांग्रेस के लिए झारखंड से एकमात्र सांसद थीं। गृहमंत्री अमित शाह के झारखंड दौरे के बाद से ही उनके बीजेपी में शामिल होने की अटकलें लगाई जा रही थीं, हालांकि उन्होंने इन अटकलों पर अक्सर विराम लगाया, लेकिन 26 फरवरी 2024 को आखिरकार उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया। अब यह तय माना जा रहा है कि 2024 के आम चुनाव में बीजेपी उन्हें टिकट देकर चुनाव में उतारेगी। अगर, वह कांग्रेस में ही रहती तो उन्हें 2024 में कांग्रेस द्वारा संसदीय सीट का टिकट नहीं दिया जाना तय था। 




दरअसल, झारखंड मुक्ति मोर्चा के जिला अध्यक्ष सुखराम उरांव ने झारखंड के मुख्यमंत्री के पास अपना अल्टीमेटम भेज दिया था, जिसमें सिंहभूम संसदीय सीट कांग्रेस को नहीं देकर झारखंड मुक्ति मोर्चा को देने की बात कही गई थी। इस संबंध में जिला अध्यक्ष सुखराम उरांव ने महत्वपूर्ण तर्क देते हुए लिखा कि सिंहभूम संसदीय क्षेत्र के अंदर रहने वाली 6 विधानसभा सीटों में से पांच विधानसभा सीटों पर झारखंड मुक्ति मोर्चा का कब्जा है तो वे किस आधार पर कांग्रेस के लिए संसदीय सीट छोड़ दें। मालूम हो सुखराम उरांव खुद सिंहभूम संसदीय सीट पर 2024 का संसदीय चुनाव लड़ना



 चाहते हैं। इस तरह गीता कोड़ा की स्थिति बेसहारा के समान हो गई थी, इसीलिए 2024 का चुनाव कांग्रेस से लड़ने की उनकी उम्मीद पर लगभग पानी फिर गया था, इसलिए सही समय देखकर वह बीजेपी में चली गईं। ऐसा नहीं कि बीजेपी ने गीता कोड़ा को अपने दल में लेकर उन पर कोई एहसान किया है। सिंहभूम संसदीय सीट पर चुनाव लड़ने लायक भारतीय जनता पार्टी के पास कोई नेता नहीं था, दूसरा, गीता कोड़ा के जाने के बाद सुखराम उरांव का झारखंड मुक्ति मोर्चा की ओर से संसदीय चुनाव लड़ना तय माना जा रहा है। अगर, ऐसी स्थिति आती है तो जमशेदपुर संसदीय सीट कांग्रेस के हिस्से में जाएगी, जिससे डॉक्टर अजय कुमार को चुनाव लड़ने का मौका मिलेगा, लेकिन इस सियासी बदलाव का असर लोकसभा चुनावों में देखने को जरूर मिलेगा। 





दीगर बात है कि गीता कोड़ा के पति मधुकोड़ा ने झारखंड के मुख्यमंत्री रहने के दौरान इतना बड़ा घोटाला किया कि पूरे देश में झारखंड की छवि धूल में मिल गई थी। इस बात को लेकर बीजेपी की इज्जत उछालने का मौका दूसरे दलों को मिल गया है। 2009 में जब मधु कोड़ा को भ्रष्टाचार के मामले में जेल जाना पड़ा, तब गीता कोड़ा ने राजनीति में कदम रखा था। अब देखने वाली बात होगी कि क्या बीजेपी का दामन थामकर गीता कोड़ा गठबंधन सरकार के लिए सियासी चुनौती पेश कर पाएंगी या नहीं।

क्या संदेशखाली मुद्दे को सियासी तूल देकर टीएमसी के लिए समस्या खड़ी कर पाएगी बीजेपी...?

क्या संदेशखाली मुद्दे को सियासी तूल देकर टीएमसी के लिए समस्या खड़ी कर पाएगी बीजेपी...?


देवानंद सिंह

पश्चिम बंगाल का संदेशखाली मुद्दा शांत होने का नाम नहीं ले रहा है। भारतीय जनता पार्टी आगामी लोकसभा चुनावों में इसे भुनाने की पूरी तैयारी में जुटी हुई है। इसके दो मुख्य कारण हैं। पहला भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने भाल भाजपा को निर्देश दिए हैं कि चुनाव तक इस मुद्दे को न सिर्फ़ जीवित रखा जाए बल्कि इस पर नंदीग्राम की तर्ज पर ज़बरदस्त राज्यव्यापी आंदोलन खड़ा करने की भी रणनीति तैयार की जाए। खुद केंद्रीय नेतृत्व भी इसमें जुटा है, दूसरा प्रमुख कारण है, इसी के तहत पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एक सप्ताह में तीन-तीन बार पश्चिम बंगाल दौरे पर जाने की तैयारी करना। 


 दरअसल, पहले पीएम मोदी को छह मार्च को उत्तर 24-परगना ज़िला मुख्यालय बारासात में संदेशखाली के मुद्दे पर एक जनसभा को संबोधित करना था, लेकिन अब इसकी तारीख़ बदल कर आठ मार्च कर दी गई है। बीजेपी नेताओं के मुताबिक़ प्रधानमंत्री ने महिलाओं पर अत्याचार और यौन उत्पीड़न का मुद्दा उठाने के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस यानी आठ मार्च ही चुना है, लेकिन उससे पहले प्रधानमंत्री एक और दो मार्च को आरामबाग़ और कृष्णानगर लोकसभा इलाक़ों में अलग-अलग रैलियों को संबोधित कर सकते हैं, क्योंकि चुनावी समीकरण के लिहाज से पार्टी के लिए यह दोनों सीटें अहम हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी आरामबाग़ लोकसभा सीट पर बहुत कम अंतर से हारी थी, जबकि वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव में पार्टी इस लोकसभा क्षेत्र के तहत सात में से चार विधानसभा सीटों पर विजयी रही थी। दूसरी ओर, नदिया ज़िले में कृष्णानगर की राजनीतिक ज़मीन भी बीजेपी के लिए उपजाऊ है।




 वो पहले यह सीट जीत चुकी है। वर्ष 1999 में इस सीट पर पार्टी के उम्मीदवार जलू मुखर्जी जीते थे। उस समय राज्य में बीजेपी का कोई संगठन या जनाधार नहीं था। वहीं, कृष्णानगर की तृणमूल कांग्रेस सांसद रही महुआ मोइत्रा की लोकसभा सदस्यता छिनने और उनके कामकाज पर विवाद पैदा होने के बाद उपजी परिस्थिति का फ़ायदा बीजेपी उठाना चाहती है।



 उधर, प्रदेश बीजेपी सिंगूर और नंदीग्राम की तर्ज़ पर ही संदेशखाली आंदोलन को भी खड़ा करना चाहती है। इसकी कड़ी में, संदेशखाली पर आंदोलन तेज़ करने की अपनी रणनीति के तहत ही पार्टी ने बीते सप्ताह 'द बिग रिवील-द संदेशखाली शॉकर' शीर्षक से एक डॉक्यूमेंट्री भी जारी की है, इसमें संदेशखाली की प्रभावित महिलाओं के बयान और इलाक़े की स्थिति दिखाई गई है और संदेशखाली की तुलना नंदीग्राम से की है। बीजेपी विधायक शुभेंदु अधिकारी ने कहा, "संदेशखाली की परिस्थिति नंदीग्राम जैसी है। नंदीग्राम में लोगों ने ज़मीन के अधिग्रहण के ख़िलाफ़ लड़ाई की थी और यहां ज़मीन पर जबरन कब्ज़े के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। संदेशखाली में खेती की ज़मीन पर जबरन कब्ज़ा यौन उत्पीड़न के बाद दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा है।" यह गरम मुद्दा है, इसीलिए बीजेपी इस मुद्दे को लोकसभा चुनाव तक बनाए रखना चाहती है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जनसभा भी इसी रणनीति का हिस्सा है। 


दूसरी तरफ, कई केंद्रीय आयोग के प्रतिनिधि भी संदेशखाली का दौरा कर रहे हैं। राष्ट्रीय जनजाति आयोग की टीम बीते सप्ताह दूसरी बार यहां पर पहुंची। इससे पहले इलाक़े के दौरे के बाद उसने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपी रिपोर्ट में बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफ़ारिश की थी। वहीं, राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा के नेतृत्व में भी एक टीम संदेशखाली के दौरे के बाद यही बात दोहरा चुकी है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी राज्य प्रशासन से चार सप्ताह के भीतर संदेशखाली पर रिपोर्ट मांगी है। मानवाधिकार आयोग की टीम भी दो दिनों तक इलाक़े का दौरा कर पीड़ितों से बातचीत कर चुकी है। अगर, चुनावी समीकरणों के नजरिए से देखें तो कृष्णानगर इलाक़े की ज़मीनी परिस्थिति बीजेपी की राजनीति के लिए सही है, इसी वजह से लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री की सभा के लिए कृष्णानगर को चुना गया है। 
प्रधानमंत्री मोदी के दौरे से पहले प्रदेश बीजेपी ने कोलकाता में गांधी प्रतिमा के नीचे 27 से 29 फरवरी तक धरना देने का भी फ़ैसला किया है। इसमें पार्टी के तमाम नेता शामिल रहेंगे। बता दें कि बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में राज्य की 42 में से 18 सीटें जीती थीं। बीजेपी नेताओं का मानना है कि तब जिस तरह उन्होंने अपनी सीटों की संख्या दो से बढ़ा कर 18 तक पहुंच दिया था, उसी तरह इस बार संदेशखाली आंदोलन के ज़रिए इसे 30 के पार पहुंचाना ही उनका लक्ष्य है। कुल मिलाकर, बीजेपी संदेशखाली के बहाने राज्य में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों और उनकी हालत को मुद्दा बनाते हुए ममता बनर्जी के इस वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती है। 




यह पूरा मामला बीते महीने राशन घोटाले के सिलसिले में तृणमूल कांग्रेस नेता शाहजहां शेख के घर ईडी के छापे से शुरू हुआ था। इस मामले में पूर्व खाद्य मंत्री ज्योतिप्रिय मल्लिक की गिरफ्तारी के बाद ईडी की एक टीम पिछले महीने पांच जनवरी को शाहजहां शेख के घर की तलाशी के लिए संदेशखाली पहुंची थी, लेकिन उस समय शाहजहां शेख के कथित समर्थकों के हमले में ईडी के तीन अधिकारी घायल हो गए थे। शाहजहां तभी से फरार है। उसके जिन दो सहयोगियों पर यौन उत्पीड़न और जमीन पर जबरन कब्जे के आरोप लगे हैं, जिनमें उत्तम सर्दार और शिव प्रसाद हाजरा शामिल हैं, जिन्हें पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका है। देखने वाली बात होगी कि  संदेशखाली मुद्दे को सियासी तूल देकर बीजेपी टीएमसी को लोकसभा में कितना नुकसान पहुंचा पाती है।

Thursday 22 February 2024

समय के साथ-साथ बदल गया किसान आंदोलनों का स्वरूप


देवानंद सिंह

किसान प्रतिनिधियों और सरकार के नुमाइदों के बीच कई स्तर की बातचीत के बाद भी सहमति नहीं बन पा रही है। देश के कई बॉर्डर वाले हिस्सों से किसान दिल्ली कूच करने की तैयारी में हैं, लेकिन सरकार की भी पूरी कोशिश है कि किसानों को किसी भी तरह दिल्ली कूच ना करने दिया जाए, लेकिन यह सब कब तक चलता रहेगा, यह सबसे बड़ा सवाल है।




 

दरअसल, यूपी से लेकर पंजाब-हरियाणा के किसानों ने '13 फरवरी को 'दिल्ली चलो' का नारा बुलंद किया था। संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा ने फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के संबंध में कानून बनाने समेत विभिन्न मांगों को लेकर केंद्र सरकार पर दबाव डालने के तहत दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना देने का ऐलान किया है। इस आंदोलन को देश के 200 से अधिक किसान यूनियनों का समर्थन हासिल है। किसान एमएसपी के लिए

 

 

कानूनी गारंटी के अलावा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने, किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए पेंशन, कृषि ऋण माफी, पुलिस मामलों को वापस लेने और लखीमपुर खीरी हिंसा के पीड़ितों के लिए 'न्याय' की भी मांग कर रहे हैं। यह उन शर्तों में से एक है, जो किसानों ने तब निर्धारित की थी, जब वे 2021 में कृषि कानूनों के खिलाफ अपना आंदोलन वापस लेने पर सहमत हुए थे, लेकिन इस बार फिर ऐसे ही मांगों को लेकर किसान सड़क पर उतर आए, यह कब चलता रहेगा, यह तय नहीं है। वैसे, इतिहास के पन्नों को पलटकर देखा जाए तो

 

 

देश में 1858 से 1914 के बीच किसान आंदोलन की शुरुआत हुई थी, लेकिन तब के आंदोलन स्थानीय स्तर पर ही सीमित रहे, जिनका मुख्य कारण किसानों पर अत्याचार, भारतीय उद्योगों पर ब्रिटिश नीतियों का दुष्प्रभाव और अन्यायपूर्ण आर्थिक नीतियां थीं। किसानों को मनमाना लगान, अवैध टैक्स और बंधुआ मजदूरी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसके विरोध में किसानों ने वक्त-वक्त पर आंदोलन किए। इसी क्रम में 1920 से 1940 के बीच कई किसान संगठनों की स्थापना हुई, जिनमें बिहार प्रांतीय किसान सभा और

 

 

 

अखिल भारतीय किसान सभा प्रमुख थे। इन संगठनों ने जमींदारी प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई। 1858 और 1947 के बीच भारत में किसान आंदोलनों ने कई चरणों में विकास किया। 1914 से पहले ये आंदोलन लोकलाइज्ड, असंबद्ध और विशेष शिकायतों तक सीमित थे। 1914 के बाद गांधीजी के नेतृत्व में आंदोलन राष्ट्रवादी चरण में प्रवेश कर गए। 1859-62 बंगाल में नील की खेती करने वाले किसानों ने यूरोपीय बागान मालिकों के शोषण के खिलाफ विद्रोह किया था। वहीं, 1870-80 के बीच पाबना आंदोलन के तहत पूर्वी बंगाल में जमींदारों ने लगान और टैक्स बढ़ाए तो किसानों ने आंदोलन किया।

 

 

1875 में दक्कन के किसानों ने मारवाड़ी और गुजराती साहूकारों के शोषण के खिलाफ विद्रोह किया। 1917 में बिहार के चंपारण में नील की खेती करने वाले किसानों ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में जमींदारों के शोषण के खिलाफ आंदोलन किया। 1918 में गुजरात के खेड़ा में किसानों ने सूखे के बावजूद भू-राजस्व माफ करने से सरकार के इनकार के खिलाफ आंदोलन किया, जबकि 1928 गुजरात के बारदोली में किसानों ने लैंड रेवेन्यू बढ़ाने के खिलाफ सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में आंदोलन। यानी किसान अपनी मांगों को लेकर पहले से ही आंदोलन करते रहे है, लेकिन धीरे-धीरे जिस तरह इन आंदोलनों का स्वरूप बदल है, वह राजनीति से प्रेरित अधिक दिखाई देता है, क्योंकि इससे आम आदमी के जीवन पर बुरा असर पड़ रहा है, हर तरफ से राजधानी दिल्ली कैद है।

 

 

हालांकि, पंजाब- हरियाणा से किसानों के 13 फरवरी के दिल्ली कूच के ऐलान के बाद पुलिस ने दिल्ली-चंडीगढ़ हाइवे का रूट डायवर्ट किया हुआ है। वहीं, अंबाला और पंजाब की तरफ से आने वाले रास्तों पर ट्रैफिक बंद है। दिल्ली में सिंघु बॉर्डर के साथ ही गाजीपुर बॉर्डर, लोनी बॉर्डर, चिल्ला बॉर्डर, रजोकरी बॉर्डर, कापसहेड़ा बॉर्डर और कालिंदी कुंज-डीएनडी-नोएडा बॉर्डर पर सुरक्षा के इंतजाम किए गए हैं, लेकिन ये व्यवस्थाएं भी नाकाफी लग रही हैं।

 

 

 

Friday 12 May 2023

झारखंड बिहार वोटों के लिए करवट लेती सियासत…

देवानंद सिंह


झारखंड बिहार की राजनीति में हमेशा बहुत कुछ ऐसा होता है, जो अनुमानों से परे होता है। यहां की सियासत अपने ही अंदाज में अजीबोगरीब करवट लेती है, खासकर तब ज्यादा, जब चुनाव आने वाले होते हैं। अप्रैल के पहले पखवाड़े में जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य के जेल मैन्युअल में बदलाव किया तो अंदाज हो गया था, वो क्या करने वाले हैं। इसके साथ सूबे की सियासत करवट लेनी लगी। 30 साल पहले डीएम की हत्या में आजीवन कैद की सजा भुगत रहे आनंद मोहन सिंह के रिहा होने के बाद राज्य की राजनीति में नई सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है।वहीं ब्राह्मण युवा शक्ति संघ के द्वारा झारखंड में भूमिहार ब्राहमण को एक करने की कवायत शुरू कर दी गई है और अगर इसमें सफलता मिलती है तो राजनीति के दूरगामी परिणाम सामने आएंगे






दरअसल, सियासत अब गलत-सही, अच्छे-खराब से परे जाकर फायदों और वोट बैंक के रास्तों को राजमार्ग में बदलने में जुटी हुई है। झारखंड बिहार में उसी सियासी रास्ते का एक हिस्सा अब भूमिहार ब्राह्मण व आनंद मोहन सिंह बनने वाले हैं। सियासी हलकों में इस को लेकर चर्चा तेज है कि आनंद मोहन की रिहाई से कौन से तीर साधे जाने वाले हैं तो झारखंड सवर्ण को राजनीति की मुख्यधारा से धीरे-धीरे हटाने के बाद इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए थोड़ा पहले बिहार की राजनीति के अतीत में झांकना होगा फिर दूसरी कड़ी में झारखंड की बात करूंगा



*कभी सियासत की धूरी बना था सामाजिक न्‍याय*


दरअसल, पिछली सदी के आखिरी दशक में बिहार की राजनीति में सामाजिक न्‍याय का तानाबाना बड़ी जोर के साथ सियायत में तैरने लगा था। या यूं कहें कि यह शब्‍द भारतीय राजनीति की धुरी बन गया था। पिछड़े और दलित वर्ग को सत्‍ता में भागीदारी के नाम पर आई समाजवादी धारा की सरकारों ने जो नीतियां बनाईं, उनसे सवर्ण और पिछड़ों के बीच दूरियां बढ़ती चली गईं। उसी दौर में सामाजिक न्‍याय के बड़े चेहरे के रूप में बिहार के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री लालू यादव उभरे। उत्‍तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव दूसरे चेहरे रहे। दोनों ही राजनेताओं ने सामाजिक न्‍याय के नाम पर राजकाज का जो तरीका अपनाया, उससे सवर्ण और पिछड़ों के बीच पैदा हुई खाई बढ़ती ही चली गई, जो मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद बननी शुरू हुई थी। इसी दौर में बिहार के कोसी इलाके से राजनीति के दो चेहरे उभरे। एक चेहरा पिछड़ावाद का पहरुआ था तो दूसरा उसका विरोधी। बिहार के कोसी अंचल में आज के पिछड़े वर्ग की प्रमुख जाति यादव के कई परिवारों की समृद्धि सवर्ण जमींदारों को भी मात देती है। ऐसे ही एक परिवार से उभरे राजेश रंजन उर्फ पप्‍पू यादव बाहुबली के रूप में उभरे। तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री लालू यादव का वरदहस्‍त उन पर था। तब उनका नाम रंगदारी में भी आगे आया। उनके निशाने पर सवर्ण समाज के लोग रहते थे तो दूसरी तरफ आनंद मोहन सवर्णों के पक्ष में खड़े होते रहे।


*सामाजिक न्‍याय की राजनीति को नहीं भाए थे आनंद मोहन*



आनंद मोहन चूंकि राजपूत जमींदार परिवार से हैं, लिहाजा वे तत्‍कालीन सामाजिक न्‍याय की राजनीति की आंख की किरकिरी बन गए थे। इसी दौर में आनंद मोहन की लालू यादव से अदावत बढ़ती गई। लालू के शासनकाल पर जंगलराज का आरोप लगा। उस जंगलराज और सवर्ण विरोधी हालात में आनंद मोहन सवर्ण तबके की उम्‍मीद बनकर उभरे। इसी दौर में जी कृष्‍णैया हत्‍याकांड हुआ, जिसमें वे फंस गए। 1994 में कृष्‍णैया की हत्‍या के समय बिहार में कहा जाता था कि तत्‍कालीन सरकार ने जानबूझकर अपने विरोधियों को इस हत्‍याकांड में फंसाया। उन्‍हीं दिनों बिहार में जनता दल से अलग होकर जार्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार ने समता पार्टी बनाई तो आनंद मोहन ने बिहार पीपुल्‍स पार्टी। दोनों में 1995 के विधानसभा चुनाव में समझौता हुआ, हालांकि सफलता नहीं मिली, जिसके बाद दोनों पार्टियां अलग हो गईं। यह बात और है कि उसी दौर में आनंद मोहन की पत्‍नी लवली आनंद ने एक उपचुनाव में वैशाली सीट से कांग्रेसी दिग्‍गज ललित नारायण शाही की बहू वीणा शाही को हराकर देश को चौंका दिया था। तब आनंद मोहन खुलकर लालू यादव का विरोध करते थे।


*एमवाई समीकरण बनाने में कामयाब रहे लालू यादव*


मंडलवाद और राममंदिर आंदोलन के बाद उभरी राजनीति में लालू यादव करीब 14 प्रतिशत आबादी वाले यादव और करीब 17 प्रतिशत वोटिंग आबादी वाले मुसलमान तबके को साथ मिलाकर एमवाई यानि माई समीकरण बनाने में कामयाब रहे। माई समीकरण के सहारे वे भूराबाल को ठेंगे पर रखते रहे। भूराबाल यानि भूमिहार, राजपूत, ब्रह्रामण और लाला यानि कायस्‍थ समुदाय। वो भूराबाल का सार्वजनिक उपहास करते रहे। उसे नीचा दिखाते रहे। माई समीकरण के साथ कुशवाहा, मुसहर और गैर पासवान दलित जातियों की गोलबंदी से वे सत्‍ता की सीढि़यां नापते रहे। बाद के दिनों में जब समता पार्टी उभरी तो उसने लवकुश का समीकरण रचा। लव यानि कुर्मी और कुश यानि कोइरी-कुशवाह समीकरण। बिहार की राजनीति में यह समीकरण करीब आठ फीसद मतदाताओं पर पकड़ रखता है। हालांकि, सवर्ण मतदाता इन दोनों ही राजनीति समूहों से अलग रहा, लेकिन 1996 में समता पार्टी ने जब भारतीय जनता पार्टी से समझौता किया तो समता पार्टी और भाजपा मिलकर लव-कुश और सवर्ण समुदायों को साधने में जुट गए।


*गठबंधन को 2005 में मिली पहली बार सफलता*


इस गठबंधन को सफलता पहली बार 2005 के विधानसभा चुनावों में मिली। तब भाजपा और समता पार्टी ने मिलकर इतिहास रच दिया था। इसके सामने लालू यादव का एमवाई खेत रहा। तब समूचा सवर्ण समुदाय, गैर यादव पिछड़ी जातियां और गैर पासवान दलित से लेकर 2015 के विधानसभा चुनावों तक तकरीबन यही समीकरण काम करता रहा। बाद के दिनों में नीतीश कुमार ने दलितों में अति दलित और पिछड़ों में अति पिछड़े समुदायों को अलग कर दिया। फिर ये जातियां लालू यादव के गठबंधन से दूर होती चली गईं, लेकिन इस बीच नीतीश कुमार ने दो बार पैंतरेबाजी की और भाजापा के इतर लालू का साथ ले लिया। भाजपा द्वारा नीतीश कुमार के साथ भविष्‍य में न जाने का ऐलान के बाद अब उनका दांवपेंच काम आता नहीं दिख रहा है।


लालू का एमवाई समीकरण भले ही बरकरार हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में नरेंद्र मोदी के उभार के बाद गैर यादव पिछड़ी जातियों में पार्टी की जबरदस्‍त पैठ बनी है। नीतीश कुमार की अपनी बिरादरी कुर्मी भी लालू यादव की पार्टी के साथ सहज महसूस नहीं कर रही है। इसीलिए उनके निर्वाचन क्षेत्र के अलावा तकरीबन हर जगह कुर्मी भी एमवाई समीकरण से अलग रुख दिखा रहा है। इस बीच उपेंद्र कुशवाहा को भाजपा ने तोड़कर एक तरह से लवकुश समीकरण को भी कमजोर कर दिया है। गैर पासवान दलित जातियों में भी भाजपा ने कड़ी सेंधमारी की है। रामविलास पासवान के परिवार में फूट के बाद पासवान समुदाय में भी पुरानी एकता नजर नहीं आ रही।


*कमजोर हुई सामाजिक न्‍याय की राजनीति*


इस बीच एक बदलाव राष्‍ट्रीय जनता दल की राजनीति में भी हुआ है। लालू यादव के एमवाई समीकरण के बावजूद दो राजपूत नेताओं के साथ उनकी राजपूत समुदाय में पैठ की कोशिश जारी थी। रघुवंश प्रसाद सिंह और जगदानंद सिंह जैसे राजपूत नेता लालू यादव के साथ थे। इन संदर्भों में माना जा रहा है कि अब बिहार में सामाजिक न्‍याय की राजनीति कमजोर होने लगी है। अति पिछड़ों और अति दलितों में भाजपा की बढ़ती पैठ बाद सामाजिक न्‍याय के पुरोधाओं को अब उसी सवर्ण समाज से उम्‍मीदें बढ़ गईं हैं, जिन्‍हें गाली देते हुए उनकी राजनीति परवान चढ़ी है। पिछले कुछ साल से लालू यादव के बेटे तेजस्‍वी भूमिहारों की प्रशंसा करते नहीं थक रहे। आनंद मोहन के बेटे उनकी ही पार्टी से विधायक भी हैं। ऐसे में आनंद मोहन की रिहाई के बाद लगता है कि अब सामाजिक न्‍याय वाली राजनीति की उम्‍मीद राजपूत समुदाय से बढ़ गई है। बिहार में करीब आठ फीसदी राजपूत हैं, जो करीब नौ लोकसभा और 28 विधानसभा सीटों पर सीधे असर डालते हैं।


बाकी शायद ही कोई विधानसभा सीट होगी, जहां राजपूत जनसंख्‍या न होगी, इसीलिए अब नीतीश और तेजस्‍वी की जोड़ी आनंद मोहन के अतीत, उनके साथ अतीत में रही अदावत भुलाकर उनकी रिहाई के बहाने राजपूत समुदाय को लुभाने की कोशिश में जुट गई है। उसे लगता है कि अगर सत्‍ता उनके गठबंधन की ओर खिसकती दिखी तो राजपूत समुदाय हाथ बढ़ाने में देर नहीं लगाएगा, लेकिन लाख टके का सवाल यह है‍ कि क्‍या लालू राज के दौरान राजपूतों और भूमिहारों के साथ जो अनाचार हुआ, क्‍या राजपूत समुदाय उसे सिर्फ आनंद मोहन की रिहाई उलटी पड़ सकती है। यह सामाजिक न्‍याय की राजनीति के लिए दोहरे नुकसान की बात होगी, क्‍योंकि उनकी रिहाई जिस तरह से दलित स्‍वाभिमान और दलितों की उपेक्षा से जोड़कर देखा जा रहा है, उससे तो ऐसा ही लगता है।



*फायदे का सौदा होंगे आंनद मोहन*

राजनीतिक विशलेषकों का मानना है कि बिहार में महागठबंधन की राजनीति में वह नीतीश और लालू दोनों के लिए फायदे का सौदा साबित होंगे, चूंकि वह खुद राजपूत हैं। साथ ही भूमिहार और राजपूत समुदाय पर असर रखते हैं तो जेडीयू और आरजेडी की सियासी नाव को विधानसभा चुनावों में मदद दे सकते हैं। सीमांचल और कोसी की 28 विधानसभा सीटों पर उनके असर का दावा किया जा रहा है, हालांकि बिहार के ही एक नेता कहते हैं कि आनंद मोहन अगर सियासत में इन दो दलों के साथ आए तो दलित और पिछड़ा वोट उनसे छिटक भी सकता है, फायदे की गणित नुकसान में बदल सकती है। वैसे नीतीश कुमार और लालू को भरोसा है कि उनके दलों के वोटबैंक के साथ आनंद मोहन के जरिए राजपूत और भूमिहार वोट साथ आ गए तो विजयी समीकरण बना जाएगा।


बुधवार को राष्ट्र संवाद के अगली कड़ी में झारखंड की सियासत पर एक नजर

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