Friday, 12 May 2023

झारखंड बिहार वोटों के लिए करवट लेती सियासत…

देवानंद सिंह


झारखंड बिहार की राजनीति में हमेशा बहुत कुछ ऐसा होता है, जो अनुमानों से परे होता है। यहां की सियासत अपने ही अंदाज में अजीबोगरीब करवट लेती है, खासकर तब ज्यादा, जब चुनाव आने वाले होते हैं। अप्रैल के पहले पखवाड़े में जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य के जेल मैन्युअल में बदलाव किया तो अंदाज हो गया था, वो क्या करने वाले हैं। इसके साथ सूबे की सियासत करवट लेनी लगी। 30 साल पहले डीएम की हत्या में आजीवन कैद की सजा भुगत रहे आनंद मोहन सिंह के रिहा होने के बाद राज्य की राजनीति में नई सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है।वहीं ब्राह्मण युवा शक्ति संघ के द्वारा झारखंड में भूमिहार ब्राहमण को एक करने की कवायत शुरू कर दी गई है और अगर इसमें सफलता मिलती है तो राजनीति के दूरगामी परिणाम सामने आएंगे






दरअसल, सियासत अब गलत-सही, अच्छे-खराब से परे जाकर फायदों और वोट बैंक के रास्तों को राजमार्ग में बदलने में जुटी हुई है। झारखंड बिहार में उसी सियासी रास्ते का एक हिस्सा अब भूमिहार ब्राह्मण व आनंद मोहन सिंह बनने वाले हैं। सियासी हलकों में इस को लेकर चर्चा तेज है कि आनंद मोहन की रिहाई से कौन से तीर साधे जाने वाले हैं तो झारखंड सवर्ण को राजनीति की मुख्यधारा से धीरे-धीरे हटाने के बाद इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए थोड़ा पहले बिहार की राजनीति के अतीत में झांकना होगा फिर दूसरी कड़ी में झारखंड की बात करूंगा



*कभी सियासत की धूरी बना था सामाजिक न्‍याय*


दरअसल, पिछली सदी के आखिरी दशक में बिहार की राजनीति में सामाजिक न्‍याय का तानाबाना बड़ी जोर के साथ सियायत में तैरने लगा था। या यूं कहें कि यह शब्‍द भारतीय राजनीति की धुरी बन गया था। पिछड़े और दलित वर्ग को सत्‍ता में भागीदारी के नाम पर आई समाजवादी धारा की सरकारों ने जो नीतियां बनाईं, उनसे सवर्ण और पिछड़ों के बीच दूरियां बढ़ती चली गईं। उसी दौर में सामाजिक न्‍याय के बड़े चेहरे के रूप में बिहार के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री लालू यादव उभरे। उत्‍तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव दूसरे चेहरे रहे। दोनों ही राजनेताओं ने सामाजिक न्‍याय के नाम पर राजकाज का जो तरीका अपनाया, उससे सवर्ण और पिछड़ों के बीच पैदा हुई खाई बढ़ती ही चली गई, जो मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद बननी शुरू हुई थी। इसी दौर में बिहार के कोसी इलाके से राजनीति के दो चेहरे उभरे। एक चेहरा पिछड़ावाद का पहरुआ था तो दूसरा उसका विरोधी। बिहार के कोसी अंचल में आज के पिछड़े वर्ग की प्रमुख जाति यादव के कई परिवारों की समृद्धि सवर्ण जमींदारों को भी मात देती है। ऐसे ही एक परिवार से उभरे राजेश रंजन उर्फ पप्‍पू यादव बाहुबली के रूप में उभरे। तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री लालू यादव का वरदहस्‍त उन पर था। तब उनका नाम रंगदारी में भी आगे आया। उनके निशाने पर सवर्ण समाज के लोग रहते थे तो दूसरी तरफ आनंद मोहन सवर्णों के पक्ष में खड़े होते रहे।


*सामाजिक न्‍याय की राजनीति को नहीं भाए थे आनंद मोहन*



आनंद मोहन चूंकि राजपूत जमींदार परिवार से हैं, लिहाजा वे तत्‍कालीन सामाजिक न्‍याय की राजनीति की आंख की किरकिरी बन गए थे। इसी दौर में आनंद मोहन की लालू यादव से अदावत बढ़ती गई। लालू के शासनकाल पर जंगलराज का आरोप लगा। उस जंगलराज और सवर्ण विरोधी हालात में आनंद मोहन सवर्ण तबके की उम्‍मीद बनकर उभरे। इसी दौर में जी कृष्‍णैया हत्‍याकांड हुआ, जिसमें वे फंस गए। 1994 में कृष्‍णैया की हत्‍या के समय बिहार में कहा जाता था कि तत्‍कालीन सरकार ने जानबूझकर अपने विरोधियों को इस हत्‍याकांड में फंसाया। उन्‍हीं दिनों बिहार में जनता दल से अलग होकर जार्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार ने समता पार्टी बनाई तो आनंद मोहन ने बिहार पीपुल्‍स पार्टी। दोनों में 1995 के विधानसभा चुनाव में समझौता हुआ, हालांकि सफलता नहीं मिली, जिसके बाद दोनों पार्टियां अलग हो गईं। यह बात और है कि उसी दौर में आनंद मोहन की पत्‍नी लवली आनंद ने एक उपचुनाव में वैशाली सीट से कांग्रेसी दिग्‍गज ललित नारायण शाही की बहू वीणा शाही को हराकर देश को चौंका दिया था। तब आनंद मोहन खुलकर लालू यादव का विरोध करते थे।


*एमवाई समीकरण बनाने में कामयाब रहे लालू यादव*


मंडलवाद और राममंदिर आंदोलन के बाद उभरी राजनीति में लालू यादव करीब 14 प्रतिशत आबादी वाले यादव और करीब 17 प्रतिशत वोटिंग आबादी वाले मुसलमान तबके को साथ मिलाकर एमवाई यानि माई समीकरण बनाने में कामयाब रहे। माई समीकरण के सहारे वे भूराबाल को ठेंगे पर रखते रहे। भूराबाल यानि भूमिहार, राजपूत, ब्रह्रामण और लाला यानि कायस्‍थ समुदाय। वो भूराबाल का सार्वजनिक उपहास करते रहे। उसे नीचा दिखाते रहे। माई समीकरण के साथ कुशवाहा, मुसहर और गैर पासवान दलित जातियों की गोलबंदी से वे सत्‍ता की सीढि़यां नापते रहे। बाद के दिनों में जब समता पार्टी उभरी तो उसने लवकुश का समीकरण रचा। लव यानि कुर्मी और कुश यानि कोइरी-कुशवाह समीकरण। बिहार की राजनीति में यह समीकरण करीब आठ फीसद मतदाताओं पर पकड़ रखता है। हालांकि, सवर्ण मतदाता इन दोनों ही राजनीति समूहों से अलग रहा, लेकिन 1996 में समता पार्टी ने जब भारतीय जनता पार्टी से समझौता किया तो समता पार्टी और भाजपा मिलकर लव-कुश और सवर्ण समुदायों को साधने में जुट गए।


*गठबंधन को 2005 में मिली पहली बार सफलता*


इस गठबंधन को सफलता पहली बार 2005 के विधानसभा चुनावों में मिली। तब भाजपा और समता पार्टी ने मिलकर इतिहास रच दिया था। इसके सामने लालू यादव का एमवाई खेत रहा। तब समूचा सवर्ण समुदाय, गैर यादव पिछड़ी जातियां और गैर पासवान दलित से लेकर 2015 के विधानसभा चुनावों तक तकरीबन यही समीकरण काम करता रहा। बाद के दिनों में नीतीश कुमार ने दलितों में अति दलित और पिछड़ों में अति पिछड़े समुदायों को अलग कर दिया। फिर ये जातियां लालू यादव के गठबंधन से दूर होती चली गईं, लेकिन इस बीच नीतीश कुमार ने दो बार पैंतरेबाजी की और भाजापा के इतर लालू का साथ ले लिया। भाजपा द्वारा नीतीश कुमार के साथ भविष्‍य में न जाने का ऐलान के बाद अब उनका दांवपेंच काम आता नहीं दिख रहा है।


लालू का एमवाई समीकरण भले ही बरकरार हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में नरेंद्र मोदी के उभार के बाद गैर यादव पिछड़ी जातियों में पार्टी की जबरदस्‍त पैठ बनी है। नीतीश कुमार की अपनी बिरादरी कुर्मी भी लालू यादव की पार्टी के साथ सहज महसूस नहीं कर रही है। इसीलिए उनके निर्वाचन क्षेत्र के अलावा तकरीबन हर जगह कुर्मी भी एमवाई समीकरण से अलग रुख दिखा रहा है। इस बीच उपेंद्र कुशवाहा को भाजपा ने तोड़कर एक तरह से लवकुश समीकरण को भी कमजोर कर दिया है। गैर पासवान दलित जातियों में भी भाजपा ने कड़ी सेंधमारी की है। रामविलास पासवान के परिवार में फूट के बाद पासवान समुदाय में भी पुरानी एकता नजर नहीं आ रही।


*कमजोर हुई सामाजिक न्‍याय की राजनीति*


इस बीच एक बदलाव राष्‍ट्रीय जनता दल की राजनीति में भी हुआ है। लालू यादव के एमवाई समीकरण के बावजूद दो राजपूत नेताओं के साथ उनकी राजपूत समुदाय में पैठ की कोशिश जारी थी। रघुवंश प्रसाद सिंह और जगदानंद सिंह जैसे राजपूत नेता लालू यादव के साथ थे। इन संदर्भों में माना जा रहा है कि अब बिहार में सामाजिक न्‍याय की राजनीति कमजोर होने लगी है। अति पिछड़ों और अति दलितों में भाजपा की बढ़ती पैठ बाद सामाजिक न्‍याय के पुरोधाओं को अब उसी सवर्ण समाज से उम्‍मीदें बढ़ गईं हैं, जिन्‍हें गाली देते हुए उनकी राजनीति परवान चढ़ी है। पिछले कुछ साल से लालू यादव के बेटे तेजस्‍वी भूमिहारों की प्रशंसा करते नहीं थक रहे। आनंद मोहन के बेटे उनकी ही पार्टी से विधायक भी हैं। ऐसे में आनंद मोहन की रिहाई के बाद लगता है कि अब सामाजिक न्‍याय वाली राजनीति की उम्‍मीद राजपूत समुदाय से बढ़ गई है। बिहार में करीब आठ फीसदी राजपूत हैं, जो करीब नौ लोकसभा और 28 विधानसभा सीटों पर सीधे असर डालते हैं।


बाकी शायद ही कोई विधानसभा सीट होगी, जहां राजपूत जनसंख्‍या न होगी, इसीलिए अब नीतीश और तेजस्‍वी की जोड़ी आनंद मोहन के अतीत, उनके साथ अतीत में रही अदावत भुलाकर उनकी रिहाई के बहाने राजपूत समुदाय को लुभाने की कोशिश में जुट गई है। उसे लगता है कि अगर सत्‍ता उनके गठबंधन की ओर खिसकती दिखी तो राजपूत समुदाय हाथ बढ़ाने में देर नहीं लगाएगा, लेकिन लाख टके का सवाल यह है‍ कि क्‍या लालू राज के दौरान राजपूतों और भूमिहारों के साथ जो अनाचार हुआ, क्‍या राजपूत समुदाय उसे सिर्फ आनंद मोहन की रिहाई उलटी पड़ सकती है। यह सामाजिक न्‍याय की राजनीति के लिए दोहरे नुकसान की बात होगी, क्‍योंकि उनकी रिहाई जिस तरह से दलित स्‍वाभिमान और दलितों की उपेक्षा से जोड़कर देखा जा रहा है, उससे तो ऐसा ही लगता है।



*फायदे का सौदा होंगे आंनद मोहन*

राजनीतिक विशलेषकों का मानना है कि बिहार में महागठबंधन की राजनीति में वह नीतीश और लालू दोनों के लिए फायदे का सौदा साबित होंगे, चूंकि वह खुद राजपूत हैं। साथ ही भूमिहार और राजपूत समुदाय पर असर रखते हैं तो जेडीयू और आरजेडी की सियासी नाव को विधानसभा चुनावों में मदद दे सकते हैं। सीमांचल और कोसी की 28 विधानसभा सीटों पर उनके असर का दावा किया जा रहा है, हालांकि बिहार के ही एक नेता कहते हैं कि आनंद मोहन अगर सियासत में इन दो दलों के साथ आए तो दलित और पिछड़ा वोट उनसे छिटक भी सकता है, फायदे की गणित नुकसान में बदल सकती है। वैसे नीतीश कुमार और लालू को भरोसा है कि उनके दलों के वोटबैंक के साथ आनंद मोहन के जरिए राजपूत और भूमिहार वोट साथ आ गए तो विजयी समीकरण बना जाएगा।


बुधवार को राष्ट्र संवाद के अगली कड़ी में झारखंड की सियासत पर एक नजर

Thursday, 13 October 2022

केसीसीआई को बदनाम करने के पीछे साजिश तो नहीं !

 देवानंद सिंह

आरोपों से आहत केसीसीआई प्रबंधन ने विभाग के साथ-साथ उपायुक्त ,एसएसपी सिविल सर्जन र्वी सिंहभूम को आवेदन देकर निष्पक्ष जांच की मांग की है

किसी ने ठीक ही कहा है, जिसकी लाठी उसका भैंस। यह कहावत झारखंड के स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र के मामले में सटीक बैठती दिख रही है, क्‍योंकि हाल के दिनों में गर्भपात मामले में भी यह बात देखने को मिली थी, और अब केसीसीआई अस्‍पताल से जुड़े प्रकरण में देखने को मिल रही है। यानि जिसके पास पद-प्रतिष्‍ठा और पैसा है, उसका कुछ भी नहीं बिगड़ना है, जिसके पास पैसा-पद प्रतिष्‍ठा नहीं है, उसकी सबको खैर लेनी है। यह न केवल पक्षपातपूर्ण रवैया नजर आता है, बल्कि साजिशन उठाए जाने वाला कदम जान पड़ता है। गर्भपात प्रकरण में क्‍या स्थिति है, यह तो सबके सामने है, लेकिन केसीसीआई अस्‍पताल से जुड़े मामले की सच्‍चाई से शायद ही बहुत कम लोग रुबरु होंगे। दरअसल, मरीज का ऑपरेशन किसी और अस्‍पताल में हुआ है, पर विरोध की लकीर केसीसीआई अस्‍पताल के खिलाफ खींची जा रही है। इससे न केवल उच्‍च महकमा सवालों के घेरे में है बल्कि उन लोगों पर भी सवाल खड़ा हो रहा है, जो लोग मरीज की मदद करने के बजाय उसे उकसाने का काम कर रहे हैं। दरअसल, घाटशिला के रहने वाले गंगाधर सिंह का केसीसीआई अस्‍पताल में पिछले साल 18 नवंबर 2021 को मोतियाबिंद का सफल ऑपरेशन हुआ था। अस्‍पताल द्वारा मरीज को सलाह दी गई थी कि वह कुछ दिनों के लिए काफी एहतियात बरते और कोई ऐसा काम न करे, जिससे आंख पर बुरा प्रभाव पड़े। 24 नवंबर 2021 को मरीज गंगाधर सिंह दोबारा अस्‍पताल में आया कि उसके आंख में दर्द हो रहा है। जब उससे पूछा गया कि क्‍या उसने कोई लापरवाही तो नहीं बरती, तब उसने बताया कि उसने खेतों में काम किया। जब अस्‍पताल के डॉक्‍टर ने जांच की तो आंख में संक्रमण होने की बात सामने आई। तब अस्‍पताल ने उसे ऑपरेशन के लिए कोलकाता मेडिकल कॉलेज ऑफ हॉयर सेंटर में भेजा, जहां जांच में पेन ऑफ टलमिट्स (आंख का संक्रमण) सामने आया, जिसके बाद उसके आंख का ऑपरेशन कर डुप्‍लीकेट आंख लगाई गई। चार दिन पूर्व गंगाधर के आंख में खुजली हुई और उसकी डुप्‍लीकेट आंख गिर गई। इसके बाद इस प्रकरण पर मरीज की मदद करने के बजाय केसीसीआई अस्‍पताल के खिलाफ साजिश होने लगी।

कथित समाजसेवी बहादुर सोरेन इसके अगुआ बने जो खुद हमेशा विवादों में रहे हैं उनका इतिहास ही विवादों से भरा पूरा है पूर्व में ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए बन रही विश्वविद्यालय के लिए उन्होंने क्या किया क्षेत्र की जनता जान रही है खैर यह बात अपने-आप में चौंकाती है कि जब केसीसीआई अस्‍पताल में ऑपरेशन ही नहीं हुआ तो उसे क्‍यों साजिशन बदनाम किया जा रहा है ? यह एक बड़ा सवाल है। वैसे तो बहुत सारी स्‍वयं संस्‍थाएं और राजनीतिक पार्टियां सामाजिक सेवा के नाम पर खूब बातें करती हैं, लेकिन इस मामले में केवल अपनी टीआरपी बढ़ाने का काम हो रहा है। अगर, मरीज की डुप्‍टीकेट आंख निकल गई तो क्‍या इसके लिए संबंधित अस्‍पताल के खिलाफ मोर्चा नहीं खोला जाना चाहिए था ? केसीसीआई को साजिशन बदनाम करने का क्‍या फायदा, जहां मरीज का मोतियाबिंद का सफल ऑपरेशन हुआ था, डुप्‍लीकेट आंख तो कोलकाता मेडिकल कॉलेज ऑफ हॉयर सेंटर में लगाई गई थी, तो उसके खिलाफ ही विरोध होना चाहिए था। वहीं, समाज सेवा का बीड़ा उठाए स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं को मरीज की

 

मदद के लिए आगे नहीं आना चाहिए था, क्‍योंकि मरीज ग्रामीण परिवेश से है, उसे राजनीति नहीं बल्कि मदद की जरूरत है। इस प्रकरण में पुलिस-प्रशासन और चिकित्‍सा अधिकारियों को भी गंभीरता से सोचना चाहिए और विरोध कर रहे पक्ष को समझाए कि पहला तो ऑपरेशन के बाद एहतियात बरतने की जरूरत थी, और दूसरा मरीज ने कोई लापरवाही बरती भी है तो उसके लिए जिम्‍मेदार अस्‍पताल का विरोध किया जाना चाहिए न कि केसीसीआई का, क्‍योंकि केसीसीआई ने सफल मोतियाबिंद का ऑपरेशन किया था, जबकि डुप्‍लीकेट आंख तो कोलकाता मेडिकल कॉलेज ऑफ हॉयर सेंटर ने लगाई थी। उधर, मीडिया को भी केवल ट्रॉयल के नाम पर खबर चलाने के बजाय खबर की तहकीकात में जाकर हकीकत को प्रचारित करना चाहिए, तभी मीडिया की साख बरकरार रहेगी। क्‍योंकि सवाल इसीलिए खड़े हो रहे हैं, क्‍योंकि हाल ही में जब 132 भ्रूण हत्‍याओं का मामला सामने आया था, उसमें परिवार क्‍लीनिक के झोलाछाप डॉक्‍टर को तो गिरफ्तार कर लिया गया, जबकि दिग्‍गज अस्‍पताल के खिलाफ कोई एक्‍शन नहीं लिया गया, वो आज भी खुलेआम अपना क्‍लीनिक चला रहे हैं। इसके पीछे की वजह केवल पद-प्रतिष्‍ठा और पैसा है। यही स्थिति अगर, केसीसीआई के प्रकरण में भी देखने को मिल रही है तो निश्चित ही यह किसी साजिश का हिस्सा है। लिहाजा, चिकित्सा महकमे को इस मामले में गंभीरता से विचार करना चाहिए।

कहीं केसीसीआई अस्पताल को टारगेट तो नहीं किया जा रहा
एक कथित समाजसेवी इसके अगुआ बने हैं. हालांकि उन समाजसेवी का इतिहास ही विवादों से भरा है. एक सवाल यह भी है कि जब गंगाधर का कोलकाता के अस्‍पताल में ऑपरेशन हुआ था, तो केसीसीआई अस्पताल को क्‍यों टारगेट किया जा रहा है. वह भी कई महीनों बाद. सवाल यह भी है कि जब कोलकाता में ऑपरेशन के बाद से ही मरीज गंगाधर नकली आंख के साथ रह रहा था. कृत्रिम आंख से दिखाई नहीं देता. वह आंख इसलिए लगायी

गयी थी, ताकि बिना आंख का चेहरा देखने में खराब नहीं लगे. फिर गंगाधर को इतने समय बाद धोखाधड़ी का पता कैसे चला. उसे तो तभी पता चल जाना चाहिए था, जब उसकी दाहिनी आंख से दिखाई देना बंद हो गया था. आखिर गंगाधर को शिकायत किस बात की है. ऑपरेशन में आंख खराब होने की अथवा कृत्रिम आंख के गिर जाने की. यह जाने बिना कुछ लोगों ने केसीसी अस्पताल और उसके प्रबंधन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. उस गरीब गंगाधर की मदद करने के बजाय कथित समाजसेवियों ने उसे भयादोहन का जरिया बनाने की कोशिश की. यह किसी ने नहीं सोचा कि केसीसीआई अस्पताल में तो मरीज का मोतियाबिंद का सफल ऑपरेशन हुआ था. डुप्‍लीकेट आंख तो कोलकाता मेडिकल कॉलेज ऑफ हॉयर सेंटर में लगायी गयी थी.

 

क्या है गंगाधर सिंह का आरोप
गंगाधर ने बताया कि 18 नवंबर 2021 को अस्पताल संचालक ने कुछ और लोगों की मदद से उनको जमशेदपुर बुलवाया और बहला-फुसलाकर अपने हॉस्पिटल में दाहिनी आंख का ऑपरेशन कर दिया. डॉक्टर एके गुप्ता ने यह आपरेशन किया. इसके बाद उनके दाहिने आंख के ऊपर सूजन आ गयी.

उन्होंने अस्पताल के प्रबंधक को इसकी जानकारी दी, तो एक महीने के बाद इसी हॉस्पिटल की ओर से उन्हें कोलकाता रेफर किया. एक महीने तक कोलकाता में रखकर उनका इलाज किया गया. फिर वापस जमशेदपुर लाकर एक महीने तक यहां रखा गया. गंगाधर ने बताया कि उनकी असली आंख निकाल कर कांच की गोली लगा दी गयी थी. इसकी जानकारी उन्हें नहीं थी. ऑपरेशन के वक्त उनको बेहोश कर दिया गया था.

आगे हम बताएंगे कौन है बहादुर सोरेन

Monday, 20 June 2022

द्रोपदी मुर्मू बन सकती हैं देश की अगली राष्ट्रपति !2024 को साधने के लिए आदिवासी और महिला कॉम्बिनेशन का समीकरण सेट करना चाहती है बीजेपी

देवानंद सिंह


देश में 16वें राष्ट्रपति के लिए चुनाव को लेकर सरगर्मी तेज है। अगले महीने 18 जुलाई को चुनाव होना है। इसके लिए नामांकन दाखिल करने की अंतिम तिथि 29 जून रखी गई है। वोटों की गिनती 21 जुलाई को होगी। लिहाजा, यह बात पूरी तरह साफ है कि देश को अगले महीने 21 जुलाई को अगला राष्ट्रपति मिल जाएगा, क्योंकि वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल 24 जुलाई को समाप्त होने जा रहा है।




राष्ट्रपति को लेकर तो वैसे कई नामों पर चर्चा हो रही है, लेकिन सबसे अधिक इसके सरप्राइजिंग होने की भी बात कही जा रही है। सरप्राइजिंग यह इस मामले में ही सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किस का नाम देश के प्रथम नागरिक के लिए सोचा हुआ है। आने वाले दिनों में इस बात का पता तो चल ही जाएगा, जिस नाम पर मुहर लगाई जा सकती है, उसकी बात करें तो इसमें सबसे आगे जो नाम है, वह झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रोपदी मुर्मू का है। दरअसल, बीजेपी आगामी 2024 के आम चुनाव को साधने के लिए आदिवासी और महिला कॉम्बिनेशन का समीकरण सेट करना चाहती है। इसीलिए बीजेपी के सामने द्रोपदी मुर्मू से अच्छा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है। द्रोपदी मुर्मू की छवि भी काफी सरल और ईमानदार राजनीतिज्ञ के रूप में रही है, उन्होंने झारखंड के राज्यपाल का कार्यकाल बखूबी निभाया। वह आदिवासी समाज से आती हैं। अगर, उन्हें राष्ट्रपति बना दिया जाता है तो देश की पहली आदिवासी समाज से आने वाली राष्ट्रपति होंगी।

बीजेपी के लिए द्रौपदी मुर्मू का नाम इसीलिए प्राथमिकता में है, क्योंकि बीजेपी देश में आदिवासी आबादी के सशक्तिकरण का संदेश देना चाहेगी। इसका एक और जो कारण है, वह यह है कि बीजेपी महिला राष्ट्रपति पद पर महिला का चुनाव कर विपक्षी दलों पर बढ़त भी बनाना चाहेगी।

कहा जा रहा है कि इस साल होने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाया जाएगा, जिसके लिए बीजेपी अपने लिए समर्थन जुटाने की प्रक्रिया में है। इसीलिए बीजेपी के लिए द्रौपदी मुर्मू का नाम प्राथमिकता सूची में शामिल है।

द्रौपदी मुर्मू का जन्म 20 जून 1958 को ओडिशा में हुआ था। उनके पिता का नाम बिरंची नारायण टुडू था और उनका विवाह श्याम चरम मुर्मू से हुआ था। वह ओडिशा में मयूरभंज जिले के कुसुमी ब्लॉक के उपरबेड़ा गांव के एक संथाल आदिवासी परिवार से आती हैं।

उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत 1997 में की थी और तब से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। द्रौपदी मुर्मू 1997 में ओडिशा के राजरंगपुर जिले में पार्षद चुनी गईं। उसी वर्ष मुर्मू भाजपा की ओडिशा इकाई के अनुसूचित जनजाति मोर्चा की उपाध्यक्ष भी बनीं।

राजनीति में आने से पहले, मुर्मू ने श्री अरबिंदो इंटीग्रल एजुकेशन एंड रिसर्च, रायरंगपुर में मानद सहायक शिक्षक और सिंचाई विभाग में कनिष्ठ सहायक के रूप में काम किया था।

मुर्मू ने 2002 से 2009 तक और फिर 2013 में मयूरभंज के भाजपा जिलाध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया। वह ओडिशा में दो बार भाजपा की विधायक रही हैं और नवीन पटनायक सरकार में कैबिनेट मंत्री भी थीं। उस समय ओडिशा में बीजू जनता दल और भाजपा की गठबंधन सरकार चल रही थी।

ओडिशा विधान सभा ने द्रौपदी मुर्मू को सर्वश्रेष्ठ विधायक के लिए नीलकंठ पुरस्कार से सम्मानित किया।

द्रौपदी मुर्मू ने ओडिशा में भाजपा की मयूरभंज जिला इकाई का नेतृत्व किया और ओडिशा विधानसभा में रायरंगपुर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। उन्हें आदिवासी समुदाय के उत्थान के लिए काम करने का 20 साल का अनुभव है और वह भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण आदिवासी चेहरा हैं, निश्चित ही बीजेपी इस बार उनका चेहरा आगे कर आदिवासियों में अपनी पैठ मजबूत करना चाहेगी।


( राष्ट्र संवाद पत्रिका के स्थापना दिवस समारोह की तस्वीर)

Friday, 3 June 2022

संपत्ति बढ़ाने की होड़

देवानंद सिंह

जो चाहे कीजिए कोई सजा तो है ही नहीं

जमाना सोच रहा है खुदा तो है ही नहीं




बिहार से अलग हुए झारखंड को जैसे ग्रहण लग गया है। ग्रहण भी किसी और का नहीं, बल्कि जिन नेताओं और अधिकारियों के ऊपर राज्य के विकास का जिम्मा है। उन्होंने राज्य के विकास को तो ठेंगा दिखा दिया, जबकि अपने विकास में इतने तल्लीन हो गए कि वे आज करोड़पतियों की सूची में आ गए हैं। भ्रष्टाचारी आईएएस पूजा सिंघल का मामला अभी शांत नहीं हुआ था कि राज्य के राजनीतिक गलियारों में एक बार फिर घमासान मच गया है। दरअसल, सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने आ गए हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने रघुवर दास सरकार के दौरान पांच उन मंत्रियों की संपत्ति की एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) से जांच कराने के आदेश दिए हैं, जिनके द्वारा घोषित संपत्ति में काफी इजाफा दर्शाया गया है। इन मंत्रियों की आय में 200 से 1000 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है। जनहित याचिका के आधार पर जांच के आदेश दिए गए हैं। मुख्यमंत्री की इस घोषणा के बाद पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास भी सामने आए हैं, जिन्होंने सवाल उठाते हुए कहा है कि अगर, विधायक सरयू राय की संपत्ति 3 करोड़ से बढ़कर लगभग 10 करोड़ हो सकती है, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की संपत्ति 2 करोड़ से बढ़कर 7 करोड़ हो सकती है तो भाजपा के मंत्रियों की क्यों नहीं ?

रघुवर सरकार के जिन मंत्रियों के खिलाफ जांच के आदेश दिए गए हैं, उनमें अमर कुमार बाउरी, नीरा यादव, रणधीर कुमार सिंह, लुईस मरांडी व नीलकंठ सिंह मुंडा शामिल हैं। जिस तरह से पहले हेमंत सोरेन ने एसीबी से रघुवर सरकार में 2014-19 के बीच मंत्री रहे इन लोगों की संपत्ति की जांच के आदेश दिए और उसके बाद जिस तरह रघुवर दास द्वारा विधायक सरयू राय और हेमंत सोरेन की बढ़ी संपत्ति का ब्यौरा दिया, उससे यह बात भी सीधी तौर पर जाहिर होती है कि केवल रघुवर दास सरकार में मंत्री रहे नेताओं की ही संपत्ति नहीं बढ़ी, बल्कि सरयू राय और खुद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की संपत्ति में भी खूब इजाफा हुआ, इस लिहाज से सबकी जांच होनी चाहिए। निश्चित ही आपने-आप में यह सवाल बनता भी है। पर इस सवाल के बीच एक और सवाल यह खड़ा होता है कि क्या आखिर इन नेताओं में संपत्ति बढ़ाने की प्रतियोगिता चल रही है क्या ? जो राज्य 20 -22साल के बाद भी गरीबी से जूझ रहा है, उस राज्य में इन मत्रियों और अधिकारियों की इतनी संपत्ति कैसे बढ़ गई ? किसी नेता को खोज लो और वह किसी भी पार्टी से क्यों न हो, सबकी संपत्ति में खूब बढ़ोतरी हुई है। अगर, कोई गरीब हुआ तो आम इंसान। देश का इससे भी बढ़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है, जिन लोगों को विकास और तरक्की करने की जिम्मेदारी दी गई है, वह विकास को तिलांजलि देकर अपनी जेब को भरने के लिए लूटमार मचाए हुए हैं। लिहाजा, ऐसे सभी नेताओं की संपत्ति की जांच होनी चाहिए, जिनकी आय से अधिक संपत्ति बढ़ी है। अगर, बढ़ी है तो उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उन्हें जेल भेज देना चाहिए, तभी ये नेता नगरी ठिकाने पर आएगी।


अंतर्राष्ट्रीय शायर मंजर भोपाली कि यह पंक्तियां झारखंड की राजनीति पर सटीक बैठती है:-

वो अपने चेहरे के दागों पर क्यों न फक्र करें

अब उनके पास कोई आईना तो है ही नहीं

सब आसमान से उतरे हुए फरिश्ते हैं

सियासी लोगों में कोई तो बुरा है ही नहीं

Tuesday, 19 April 2022

प्रोत्साहन राशि मामला :सवालों के घेरे में स्वास्थ्य विभाग और उनके अधिकारी

स्वास्थ्य मंत्री के न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लेने से सरयू राय के आरोप होंगे बेनकाब!

देवानंद सिंह

सरयू राय द्वारा कोरोनाकाल में स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता द्वारा अपने चहेतों को अवैध तरीके से प्रोत्साहन राशि का वितरण किए जाने के आरोप के बाद जिस तरह से सियासी माहौल गरमाया जा रहा है, उसमें विधायक सरयू राय शिथिल नजर आने लगे हैं। क्योंकि इस मामले में विधायक सरयू राय जिस तरीके से लगातार अपने बयान बदल रहे हैं, उससे साफ तौर पर लग रहा है कि उनके पास लगाए गए आरोप को कोई भी आधार नहीं है, जिससे एक अपने बयानों में लगातार परिवर्तन ला रहे हैं, जिससे यही स्पष्ट होता है कि वह स्वास्थ्य मंत्री को एक तरह से क्लीन चिट दे रहे हैं। उनके द्वारा लगाए गए आरोप का मजेदार पहलू यह है कि उन्होंने कहा था कि मंत्री और उनके पीए ने पैसा लिया था, लेकिन उनके द्वारा जारी प्रेस नोट में किसी का नाम नहीं है। यह बात अपने-आप में सरयू राय के आरोप को कमजोर करती है।



हर एक व्यक्ति के मन में यह सवाल भी उठ रहे हैं कि

आखिर कार्यालय की गुप्त कागजात विधायक सरयू राय तक कैसे पहुंच रहे हैं आरटीआई के माध्यम से यह संभव नहीं हो सकता है इतनी जल्दी विधायक सरयू राय को यह भी बताना चाहिए कि उनके कागजात का स्रोत क्या है? तभी जाकर उनके आरोप पर मुहर लग सकती है इस मामले में जो तीन सदस्यों की समिति स्वास्थ्य विभाग ने बनाई थी, उनका मौन रहना भी मामले में षड़यंत्र को दर्शाता है, आखिर इस समिति ने किस आधार पर स्वास्थ्य विभाग के अपर मुख्य सचिव अरुण कुमार सिंह, अलोक त्रिवेदी समेत अन्य अधिकारियो का नाम पात्रता सूची में जोड़ दिया? यदि वे लोग पात्र है तो फिर स्वास्थ्य मंत्री समेत अन्य सहयोगी क्यों पात्रता नहीं रखते? 

दूसरी तरफ स्वास्थ्य विभाग के गोपनीय डोकुमेंट्स लिक हो रहे है और अपर मुख्य सचिव की इस पर चुप्पी बहुत कोताहुल पैदा कर रही है, यहां जानना जरूरी होगा संकल्प में प्रोत्साहन राशि के पात्रता की जिम्मेदारी कार्यालय प्रधान को सुनिश्चित करना था और स्वास्थ्य विभाग के कार्यालय प्रधान अपर मुख्य सचिव अरुण कुमार सिंह है न कि मंत्री, फिर आखिर किस मकसद से कार्यालय प्रधान ने अपात्र लोगों का सूची में से नाम नहीं हटाया? ये गलती है या कोई षड़यंत्र?

दबी जुबान से अब यह बात भी उठने लगी है कि मंत्री रहते सरयू राय ने अपने विभाग में कितने कार्य किए पूर्वी विधानसभा की जनता अब यह भी जानने का प्रयास करने लगी है कि पूरे झारखंड में सिर्फ स्वास्थ्य विभाग ही विधायक सरयू राय के निशाने पर क्यों है और मंत्री बन्ना गुप्ता ही निशाने पर क्यों?

इस मामले में कोई शक नहीं कि झारखंड की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले विधायक सरयू राय को स्वास्थ्य के चाणक्य कहे जाने वाले बन्ना गुप्ता ने कानूनी नोटिस भेज कर मात दे दी है! क्योंकि जब सरयू राय ने उन पर घपले का आरोप लगाया था, स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता ने साफतौर पर कह दिया कि अगर सरयू राय को लगता है कि प्रोत्साहन राशि के वितरण में कोई घपला हुआ है तो सरयू राय को या तो कोर्ट की शरण में जाना चाहिए या फिर किसी एजेंसी से जांच करा लेनी चाहिए। अगर, स्वास्थ्य मंत्री साफतौर पर कह रहे हैं तो वह निष्पक्ष जांच के लिए तैयार हैं तो फिर इसमें कोई लीपापोती का सवाल नहीं रह जाता है। सरयू राय मामले को लेकर कोर्ट जाएं या नहीं, लेकिन स्वास्थ्य मंत्री ने कोर्ट की शरण में जाने की बात कह दी है, जिससे लगता है कि आने वाले दिनों में इस मुद्दे पर सियासत चलती रहेगी। वैसे, गत दिनों में मामले को लेकर, जिस तरह विधायक सरयू राय की छीछलेदर हुई है, इस बात को वह भी खूब समझ रहे हैं कि उनके पास स्वयं द्वारा लगाए गए आरोप का कोई आधार नहीं है। लिहाजा, इस तरीके का आरोप वही लगा सकता है, जिसका स्वयं के काम में मन ना लगे। बेवजह मुद्दा उठाने से कुछ नहीं होगा। सरकार का और खुद सरयू राय का विधायक के रूप में चुनकर आए आधा समय बीत गया है, लेकिन विधायक अपने क्षेत्र में विकास के नाम पर कितने कार्य किए हैं इस पर भी उन्हें बोलना चाहिए बड़ा सवाल यह है कि जब उन्हें राज्य के विकास के मुद्दों को उठाना चाहिए, तब वह बिना हाथ-पैर के मुद्दे उठाकर क्या साबित करना चाहते हैं ? क्या जमशेदपुर पश्चिम विधानसभा की हार अब तक वे नहीं भूल पाए हैं?यह बात ठीक है कि हर किसी को सरकार और उसके मंत्रियों से सवाल पूछने का हक है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि किसी को अनावश्यक बदनाम किया जाए। उन्होंने जिस तरह सोमवार को फिर एक नया खुलासा करते हुए कहा कि मंत्री बन्ना गुप्ता ने जिन 60 लोगों का कोविड प्रोत्साहन राशि लेने का आदेश दिया था, उनमें से 54 के बैंक खाता में डोरंडा ट्रेजरी से भुगतान हो गया है। लेकिन आश्चर्जनक बात यह है, जब इन सब चीजों के लिए कमेटी निर्धारण करती है तो मंत्री पर सवाल उठाने का क्या मतलब बनता है, एक प्रमुख अधिकारी पर सवाल नहीं उठाना भी सवाल के घेरे में है

जहां तक मंत्री की सुरक्षा में लगे 34 सुरक्षा कर्मियों का सवाल है, वो गृह मंत्रालय से संबंधित हैं और गृह सचिव और गृह मंत्री ही उनके वेतन को सूचित कर सकता है तो इस पर मंत्री को आरोपित करना सरयू राय के पूरे प्रकरण को हास्यास्पद बनाता है। यदि, मंत्री, स्वयं और उनके कर्मचारी प्रोत्साहन राशि की पात्रता नहीं रखते थे तो कार्यालय प्रधान होने के नाते सचिव अरुण कुमार सिंह ने उन लोगों का नाम सूची से क्यों नहीं हटाया ? अरुण कुमार सिंह जो अपर मुख्य सचिव स्वास्थ्य विभाग के हैं, वह जब सरयू राय खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री थे तो उसके सचिव भी थे? इसीलिए, इस पूरे प्रकरण पर सरयू राय का पक्ष कमजोर पड़ता जा रहा है। बेवजह के मुद्दों को तूल देकर सियासी रोटियां सेंकने से बेहतर है कि वे राज्य के विकास पर बात करें। अगर, कोई मुद्दा है भी तो उसके पुख्ता सबूत होने चाहिए। स्वास्थ्य मंत्री ने इस पूरे प्रकरण में जिस तरह की गंभीरता दिखाई है और खुद को मंत्री के बजाय सामाजिक कार्यकर्ता बताया है, वह उनकी जननायक की छवि को प्रदर्शित करता है। जब उन्होंने खुद ही कह दिया है कि वह कानून की शरण में जाएंगे तो निश्चित ही पूरे प्रकरण का पटाक्षेप होगा।

कल पढ़ें :आखिर बन्ना ही निशाने पर क्यों

Friday, 15 April 2022

अनर्गल मुद्दों को उठाने बजाय क्षेत्र के विकास पर ध्यान दें सरयू राय

देवानंद सिंह

विधायक सरयू राय द्बारा स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता पर कोविडकाल में अवैध तरीके से अपने 60 लोगों को प्रोत्साहन राशि का वितरण के आरोपों के बाद झारखंड की राजनीति में एक बार सियासी गरमाहट आ गई है। सरयू राय ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पत्र लिखकर इस तरह का आरोप लगाया था, जिसके बाद स्वास्थ्य मंत्रालय ने स्पष्टीकरण जारी करते हुए वो सारे आकड़े सार्वजनिक किए हैं, जिसके तहत प्रोत्साहन राशि का वितरण किया गया। वहीं, स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता ने भी अपने बयान में सीधे तौर पर सरयू राय को चुनौती देते




 हुए कहा है कि उन्हें पत्र लिखने का क्या जरूरत थी, कोर्ट और एजेंसियों का दरवाजा खुला है। जांच कराई जाए, दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। कुल मिलाकर, देखा जाए तो सरयू राय द्बारा लगाया गया आरोप यह कोई नई बात नहीं है। पिछले ढ़ाई के साल के दौरान उन्होंने काम कम और द्बेषपूर्ण तरीके से दूसरे नेताओं को कटघरे में खड़े करने की कोशिश की है, जो किसी भी रूप में जायज नहीं है। इससे पहले वह राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के दिग्गज नेता रघुवर दास के खिलाफ अनावश्यक बयानबाजी देते रहे। उनके खिलाफ बेवजह मोर्चा खोला रखा। यानि जब से वह निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव जीतकर आए हैं, उनका ध्यान विकास के मुद्दों पर कम और रघुवर दास पर ज्यादा केंद्रित रहा। अब लगता है, जिस तरीके से अब वह स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता को टारगेट कर रहे हैं, उससे लगता है कि अब आने वाला ढ़ाई साल उनका इसमें बीतने वाला है। लेकिन इस बीच सबसे बड़ा सवाल है कि जिन मुद्दों को लेकर वह चुनाव जीतकर आए हैं, उनका क्या हुआ ? समाज से जुड़े ऐसे बहुत से मुद्दे थे, जिनको उन्होंने चुनाव जीतने के लिए मुद्दा बनाया था, लेकिन पिछले ढ़ाई साल में वह विकास की राजनीति के बजाय टारगेटेट राजनीति को ही आगे बढ़ाते रहे हैं। जब राज्य में विकास के मुद्दों को लेकर बात होनी चाहिए, तब इस तरह के अनर्गल मुद्दों को उठाकर क्या होगा, केवल जनता का ही नुकसान होगा। दूसरा, कोविडकाल में जिस तरह स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता सक्रिय रहे, उसने राज्य में कोरोना को फैलने से रोकने में अहम भूमिका निभाई। वह दिन-रात कोविड से जुड़ी सुविधाओं की मॉनिटरिंग कर रहे थे। खुद भी कोरोना पीड़ित हुए। एक बार नहीं, बल्कि दो-दो बार। जब कोरोनाकाल में स्वास्थ्य मंत्री, स्वास्थ्य कर्मियों और दूसरे लोगों द्बारा किए गए अथक कार्यों की सराहना होनी चाहिए, तब इस तरह के आरोप लगाना बिल्कुल भी अनुचित है। अनुचित ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य कर्मियों का भी अपमान है। लिहाजा, जनता इस बात को भली-भांति देख रही है कि आखिर काम कौन कर रहा है और कौन अनर्गल के मुद्दों को आगे बढ़ा रहा है। जब सरयू राय को यह देखने की जरूरत है कि उनके क्षेत्र में कितना काम हुआ है और वह किन मुद्दों को लेकर विधायक बने हैं, बेमतलब वह पहले रघुवर दास और अब स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता को बदनाम करने में लगे हुए हैं। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि अनावश्यक मुद्दों को उठाकर वह भविष्य में चुनाव जीतने वाले नहीं हैं, बल्कि उन्हें भी अपने कार्यों का हिसाब देना होगा, क्योंकि चुनाव के दौरान जनता उनसे भी सवाल पूछेगी कि आखिर आपने पांच साल में किया क्या ? लोगों की उन समस्याओं का निस्तारण क्यों नहीं किया ? जिसको लेकर वह निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जनता के बीच में गए थे। इसीलिए इस पूरे मामले का निष्कर्ष यही निकलता है कि सरयू राय को पत्र लिखने के बजाय कोर्ट या फिर जांच एजेंसियों का दरवाजा खटखटाना चाहिए था, तभी तथ्य सामने आते। स्वास्थ्य मंत्रालय ने जब तथ्य सार्वजनिक कर दिए हैं तो वह अपने आरोपों को किस तरह सिद्ध कर पाएंगे, जनता तो अब यह कहने लगी है की ढाई साल पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास के पीछे लगे रहे और ढाई साल स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता के पीछे लगे रहेंगे मालिकाना हक का मुद्दा कहां गया इस पर भी उन्हें विचार करना चाहिए। आरोप लगाना आसान है, लेकिन आरोपों को सिद्ध भी करना चाहिए। इसीलिए मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर सरकार के अंदर फूट डलवाने का प्रयास करने के बजाय सरयू राय के लिए बेहतर होता कि वह कोर्ट की शरण में जाते, तभी कोई रिजल्ट निकल पाता। जब स्वास्थ्य मंत्रालय सारी चीजें स्पष्ट कर चुका है तो अब सरयू राय के लिए ज्यादा जरूरी होना चाहिए, क्षेत्र के विकास पर ध्यान देना, तभी जनता उन्हें माफ करेगी।

Friday, 1 April 2022

रघुवर दास और बन्ना गुप्ता की तस्वीर के सियासी मायने.....

 देवानंद सिंह                                                                                                                                             झारखंड के सियासी गलियारों में एक शानदार तस्वीर की खूब चर्चा हो रही है। चर्चा इसीलिए क्योंकि यह महज तस्वीर भर नहीं है, बल्कि राज्य की राजनीति में बदलते समीकरणों का भी एक पुख्ता संकेत है। दरअसल, जिस तरह हेमंत सोरेन सरकार में स्वास्थ्य मंत्री व राज्य के कद्दावर नेता बन्ना गुप्ता पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी के बड़े नेताओं में शुमार रघुवर दास से मिले, उसे प्रेम की भाषा की राम-भरत की जोड़ी का मिलाप कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि बन्ना गुप्ता ने जो तस्वीर अपने ट्विटर हैंडल पर डाली, वह राम-भरत के मिलन



 की याद दिलाती नजर आ रही है। पर सियासी रूप से इसके कुछ और ही मायने है, क्योंकि बन्ना गुप्ता केवल स्वास्थ्य मंत्री भर नहीं हैं, बल्कि उस कांग्रेस पार्टी के नेता भी हैं, जो बीजेपी की धुर विरोधी है। और रघुवर दास इसी पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं और बीजेपी कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान में जुटी हुई है। इसीलिए बन्ना गुप्ता का रघुवर दास से मिलना कांग्रेस के लिए चिंताजनक तो कहा ही जा सकता है, बल्कि हेमंत सोरेन सरकार के लिए और भी चिंताजनक है, क्योंकि लगातार खबरें आ रहीं हैं कि हेमंत सोरेन सरकार के अंदर सबकुछ सही नहीं चल रहा है, कांग्रेस के विधायक तो बगावती तेवर अपनाए हुए ही हैं बल्कि झामुमो के भी कई विधायक बीजेपी के संपर्क में बताए जा रहे हैं, लेकिन अभी तक इस तरह की बातें छनकर सामने आ रहीं थीं, लेकिन अब बदलते राजनीतिक समीकरणों की तस्वीर जिस तरह खुले तौर पर सामने आ रही है, उससे राज्य के बदलते राजनीतिक समीकरणों के बारे में कयास लगाना गलत नहीं होगा। ऐसी स्थिति में फिलहाल यह कहना अभी मुश्किल लगता है कि आखिर राज्य का सियासी भूचाल आखिर कहां जाकर खत्म होगा। भले ही, सियासी गलियारों में चर्चा के ग्राम होने के बाद बन्ना गुप्ता ने इसे औपचारिक मुलाकात कहा। दरअसल, शुक्रवार को रघुवर दास की पोती का पहला जन्मदिन था, जिसमें खास मौके पर बच्ची को शुभकामना देने के लिए मंत्री बन्ना गुप्ता ने भी शिरकत की। इसके बाद उन्होंने रघुवर दास के साथ इस अंदाज में तस्वीर खिंचवाई, जिसकी चर्चा सियासी गलियारों में तो हुई ही, बल्कि आम लोग भी तस्वीर के लेकर चर्चा करते नजर आए। सोशल मीडिया में इस तस्वीर को लेकर बहुत-कुछ कहा जा रहा है, क्योंकि पक्ष विपक्ष के लोग समय-समय पर मिलते रहते हैं, लेकिन रघुवर दास और बन्ना गुप्ता के मिलन की यह तस्वीर ऐसे वक्त में सामने आई है, जब हेमंत सोरेन सरकार को गिराने के प्रयासों की खबर लगातार



 आ रही है। बन्ना गुप्ता सरकार में मंत्री हैं, लेकिन भाषाई विवाद को लेकर बन्ना गुप्ता काफी मुखर रहे हैं। उन्होंने पिछले दिनों काफी कड़क बयान दिए थे, जिसमें उन्होंने कहा था, भाषा और मां भारती के लिए वह एक बार नहीं हजार बार अपना पद कुर्बान कर सकते हैं, तभी से हेमंत सोरेन सरकार के अंदर हलचल तेज नजर आ रही है। झामुमो के विधायकों के भी बीजेपी के संपर्क में रहने की बात सामने आ चुकी है, पिछले साल भी इस तरह के घटना सामने आ चुकी है। ऐसे में राज्य के राजनीतिक गलियारों में काफी उथल पुथल है। बन्ना गुप्ता का जिस तरह भगवा प्रेम सामने आ रहा है, वह इस चर्चा को और गरम कर रहा है। केवल रघुवर दास के साथ मुलाकात से ही उनका भगवा प्रेम देखने को नहीं मिला है, बल्कि डिमना चौक से हिंदू नव वर्ष के अवसर पर निकाली गई शोभा यात्रा का हिस्सा भी बन्ना गुप्ता बने। यह शोभा यात्रा पूरी तरह भगवा मय थी। और यह शोभा यात्रा भी रघुवर दास के किसी करीबी के नेतृत्व में निकाली गई। इस अवसर पर बन्ना गुप्ता ने भगवान राम को आस्था का प्रतीक बताया। इस दौरान स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता के हाथ में भगवा झंडा भी था और वह सिर पर भगवा पगड़ी पहने और पूरी तरह भगवा रंग से सराबोर नजर आ रहे थे। बन्ना बोले- राम हमारे आस्था के प्रतीक हैं, राम का नाम मात्र लेने से शरीर में नई ऊर्जा का संचार होता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम पुरुषार्थ के प्रतीक हैं, हमारे गौरव हैं, हम सबके हैं। सभी राज्यवासियों को हिन्दू नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं। यह यह बता दें कि इससे पहले बन्ना



 गुप्ता इस तरह के कार्यक्रम में शामिल होने से परहेज करते थे, लेकिन संभवत: यह पहला मौका था,जब बन्ना गुप्ता हिन्दू नव वर्ष शोभा यात्रा में शामिल हुए हैं। राज्य में जिस तरह का राजनीतिक घटनाक्रम जन्म ले रहा है, उसमें आने वाले दिन राजनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण होंगे। सीएम हेमंत की भाभी सीता सोरेन भी कुछ दिनों से देवर से कुछ अधिक ही नाराज दिख रही हैं। कभी अपनी बात को लेकर सीएम हेमंत से मिलती हैं तो कभी गुरुजी शिबू सोरेन से। अब अपनी सरकार की शिकायत लेकर सीता सोरेन राज्यपाल तक पहुंच गईं हैं। जब वो वहां से निकलीं तो कहा कि मेरे खिलाफ साजिश हो रही, मेरी आवाज को दबाने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने कहा कि अब इस सरकार से कोई उम्मीद नहीं बची है, लिहाजा, बन्ना गुप्ता हों या लोबिन हेंब्रम या सीता सोरेन या फिर कोई और विधायक, कोई भी हेमंत से साथ स्थायी तौर पर हमेशा के लिए जुड़े रहेंगे या नहीं..यह कहना काफी मुश्किल भरा लग रहा है।

झारखंड बिहार वोटों के लिए करवट लेती सियासत…

देवानंद सिंह झारखंड बिहार की राजनीति में हमेशा बहुत कुछ ऐसा होता है, जो अनुमानों से परे होता है। यहां की सियासत अपने ही अंदाज में अजीबोगरीब ...