Tuesday 21 September 2021

क्या पंजाब कांग्रेस की गुटबाजी के बीच टिक पाएंगे चरणजीत सिंह चन्नी ?

देवानंद सिंह

चरणजीत सिंह चन्नी ने पंजाब के नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली है। जितने आश्चर्यजनक तरीके से उनका नाम सामने आया, उतना ही आश्चर्य उनके भविष्य को लेकर भी जताया जा रहा है, क्योंकि उन्हें मुख्यमंत्री उन परिस्थितियों में बनाया गया, जब वे ना तो कांग्रेस आलाकमान की पहली पसंद थे और ना ही कांग्रेस विधायक दल ने उनके नाम पर सर्वसम्मति जाहिर की थी, लेकिन पंजाब के पहले दलित सीएम के रूप में उनका चुनाव, कहीं न कहीं कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा सिख बनाम हिंदू सीएम की लॉबिंग के बीच चली उठापटक और हताशा का नतीजा था। भले ही, पार्टी की राज्य की सीनियर लीडरशिप इससे खुश न हो, लेकिन पार्टी के लिए दलित मुख्यमंत्री के नाम पर राजनीति भी करने का मौका मिल गया है। 



एक तरफ अगले साल पंजाब में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और जिस तरह के आंकड़े सामने आ रहे हैं, उससे पता चलता है कि राज्य में लगभग 32 फीसदी दलित आबादी है, ऐसे में पार्टी हाईकमान का फैसला जहां एक तरफ दलित वोट बैंक के मामले में बीजेपी के खिलाफ लड़ने के लिए कारगर हथियार साबित होगा, वहीं बीजेपी शासित राज्यों में एक भी दलित मुख्यमंत्री नहीं होने पर कांग्रेस के पास पंजाब के अलावा अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी को घेरने के लिए एक मजबूत मुद्दा रहेगा। इस मुद्दे पर अभी से राजनीति तेज हो गई है। विपक्ष भी चन्नी के सिर्फ चुनावों तक मुख्यमंत्री होने की बात कहकर कांग्रेस पर लगातार सवाल उठा रहा है। पर कांग्रेस द्वारा दलित मुख्यमंत्री का चयन उसको चुनावों में फायदा तो देगा ही, इसीलिए इसे कांग्रेस का ठोस राजनीतिक निर्णय कहें तो इसमें कोई बुराई नहीं। अन्य सभी विपक्षी दल भी समुदाय को लुभाने की कोशिश करते रहे हैं। राज्य में विधानसभा चुनाव के लिए अकाली दल ने बसपा के साथ गठबंधन किया है और ऐलान किया है कि सत्ता में आए तो दलित को उपमुख्यमंत्री बनाएंगे। वहीं, आम आदमी पार्टी को भी दलित वोट बैंक का सहारा है। बीजेपी ने भी राज्य में सत्ता मिलने पर दलित को मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया है। ऐसे में, जहां अन्य सभी दल घोषणा कर रहे हैं कि 2022 में सरकार बनाने पर दलितों को महत्वपूर्ण पद दिए जाएंगे, कांग्रेस पहले ही ऐसा कर चुकी है। जिसका उसे चुनावों में भरपूर फायदा मिल सकता है। लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या चन्नी का सफर केवल चुनावों तक ही रहेगा या फिर वह आगे भी मुख्यमंत्री रहेंगे ? जिस तरह पंजाब कांग्रेस में गुटबाजी चल रही है और पार्टी के बहुत सारे नेता स्वयं को मुख्यमंत्री का दावेदार मानते हैं, ऐसे में कांग्रेस के अंदर घमासान न हो, इससे बिलकुल भी इनकार नहीं किया जा सकता है। चाहे आप नवजोत सिंह सिद्धू को ले लें, जाखड़ को ले लें, रंधावा को ले लें और प्रताप सिंह बाजवा को ले लें। पार्टी की केंद्रीय लीडरशिप की तरफ़ से भी अलग अलग चेहरे के लिए लॉबिंग चल रही थी, हर किसी में अपने पसंदीदा चेहरे को मुख्यमंत्री बनाने की होड़ लगी हुई थी और पार्टी हाईकमान चाहता था कि पितृ पक्ष से पहले ही नया मुख्यमंत्री शपथ ले ले। लिहाजा, न चाहते हुए भी चन्नी के नाम पर मुहर लगाई गई, क्योंकि दलित चेहरा होने की वजह से विरोध की बहुत कम गुंजाइश राज्य के मजबूत चेहरों की तरफ से लग रही थी। हुआ भी ऐसा ही। यह एक तरह से आगामी चुनावी मुद्दा तो बन जाएगा। पर, देखने वाली बात यह होगी कि चरणजीत सिंह चन्नी पर अगर पार्टी जीतती है तो भरोसा जता पाती है या नहीं। …….

Wednesday 8 September 2021

भाजपा विधायक ने स्वास्थ्य मंत्री पर असंसदीय टिप्पणी कर किया लोकतंत्र की मर्यादा का हनन, जमीन से उठकर मुकाम तक पहुंचे हैं बन्ना गुप्ता

देवानंद सिंह

भाजपा विधायक सीपी सिंह ने स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता को टेंपों वाला कहकर न केवल संसदीय मर्यादाओं को लांघा है, बल्कि जनता का अपमान भी किया है, खासकर मेहनतकश टेंपो चालकों, गरीबों, ओबीसी समाज और पिछड़ा वर्ग के लोगों का, क्योंकि बन्ना गुप्ता इन्हीं लोगों की आवाज हैं तो सवर्णों का सम्मान करना इन्हें अपने परिवार से मिला। इसीलिए उन्हें जन नायक की श्रेणी में रखा जाता है। यह बन्ना गुप्ता के जननायक होने का ही परिचायक है कि भाजपा विधायक सीपी सिंह की स्वाथ्य मंत्री के खिलाफ की गई टिप्पणी का पूरे राज्य में विरोध हो रहा है। समाज का हर वर्ग सड़क पर उतरकर विरोध कर रहा है। रांची के विधायक सीपी सिंह का जमशेदपुर पश्चिम क्षेत्र के विभिन्न



 चौक चौराहों पर पुतला दहन किया गया। उनकी मांग है कि इस मामले में सीपी सिंह को असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करने के लिये सदन में माफी मांगनी चाहिए। उन्होंने कहा कि जब तक वह माफी नहीं मांगते, तब तक विरोध जारी रहेगा। जिस तरह लोगों में भाजपा विधायक के खिलाफ रोष दिखाई दे रहा है, उससे लगता है कि विरोध जल्द खत्म नहीं होने वाला है। इसीलिए भाजपा विधायक को माफी मांग लेनी चाहिए। वैसे भी किसी भी नेता की पहचान उसके कार्यों से होती है। बन्ना गुप्ता ने भी अपनी पहचान अपने कार्यों से बनाई है। उन्होंने जिस तरह अपने राजनीतिक सफर में संघर्ष किया है, उस तरह का संघर्ष बहुत कम नेता करते हैं, जब ऐसे नेता मेहनतकश वाहन चालकों, गरीबों, ओबीसी समाज व पिछड़ा वर्ग की आवाज बनते हैं और सवर्णों का दिल से सम्मान करते हैं तो आमजन में उसकी लोकप्रियता लगातार बढ़ती जाती है, यही वजह है कि बन्ना गुप्ता की लोकप्रियता का ग्राफ आज तेजी से बढ़ता जा रहा है, उनकी यह लोकप्रियता आमजन के बीच ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर भी वह काफी लोकप्रिय हैं। फेसबुक, ट्विटर व अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर उनके लाखों फॉलोअर्स हैं। लोग उनके राजनीतिक संघर्ष के बारे में जानने के लिए हमेशा उत्सुक रहते हैं। यह सब ऐसे ही नहीं हुआ है बल्कि बन्ना गुप्ता ने इसके लिए जनता के बीच रहकर कड़ी मेहनत की है और सत्ता से बाहर रहते हुए भी और सत्ता में रहते हुए भी जनता के मुद्दों की लड़ाई लड़ी है। ऐसे जननायक पर एक दूसरे माननीय द्वारा अभद्र टिप्पणी करना बिलकुल भी शोभा नहीं देता है। भारत संसदीय लोकतंत्र की सफलता के लिए जाना जाता है, उसकी एक मर्यादा होती है, खासकर भाषा की मर्यादा तो होती ही है, इसीलिए जनप्रतिनिधियों को इसका विशेष ख्याल रखना चाहिए। लिहाजा, भाजपा विधायक द्वारा की गई टिप्पणी का विरोध जरूरी है, क्योंकि इससे उन्हें ही नहीं बल्कि अन्य जनप्रतिनिधियों को भी सबक मिलेगा।

महापंचायत में दिखी किसानों की ताकत…..

देवानंद सिंह

मुज्जफरनगर में आयोजित किसान पंचायत में जिस तरह किसानों का हुजूम जुटा, वह कई मायनों में महत्वपूर्ण रहा। एक तरफ, इस आंदोलन ने किसानों को और हुंकार भरने के लिए प्रेरित किया, वहीं राजनीतिक तौर पर यह आंदोलन बीजेपी के लिए आगामी चुनाव को देखते हुए परेशानी खड़ी करने वाला साबित होता दिख रहा है। भले ही, पूरे राज्य में इसका असर न दिखे, लेकिन वेस्टर्न यूपी में असर दिख सकता है। हम सब जानते हैं कि दिल्ली का



 रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है, इसीलिए 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले अगले साल यानि 2022 में यूपी में होने वाले विधानसभा चुनाव बहुत मायने रखते हैं। इसीलिए कृषि कानूनों व अन्य मुद्दों को लेकर चल रहा किसान आंदोलन बीजेपी सरकार की दुखती रग पर चोट करने वाला साबित हो रहा है। किसान पंचायत में आगामी 27 सितंबर को राष्ट्रव्यापी बंद की घोषणा की गई है। इसको लेकर भी व्यापक तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। जिस तरह किसान पंचायत का असर देखने को मिला, उसी तरह किसानों द्वारा किए गए देश व्यापी बंद का असर भी देखने को मिल सकता है। इसीलिए राजनीतिक पार्टियां भी इसे भुनाने में पीछे नहीं रह रहीं हैं। खासकर, बीजेपी को छोड़कर दूसरी पार्टियां। सपा और कांग्रेस तो इस मुद्दे को और हवा देना चाहती हैं, क्योंकि उन्हें भी लगता है कि अगर, चुनाव में बीजेपी को टक्कर देनी हैं तो किसान आंदोलन को जीवित रखना बहुत ही जरूरी है, इसीलिए ये पार्टियां लगातार राजनीतिक रंग देने की कोशिश कर रहीं हैं। पांच सितंबर को जब हम राष्ट्रीय राजधानी से मुज्जफरनगर के लिए निकले तो हर तरफ सड़कों पर किसान आंदोलन से जुड़े बड़े बड़े होर्डिंग लगे हुए थे और किसान बड़ी संख्या में पंचायत में भाग लेने के लिए पंचायत स्थल पर पहुंच रहे थे, जिसकी वजह से सड़कों में जाम की स्थिति देखने को मिल रही थी। पंचायत स्थल से जिस तरह किसानों ने हुंकार भरी, उसने किसानों की एकजुटता का भी परिचय दिया। किसानों ने सीधे सीधे कहा कि वे किसी भी स्थिति में पीछे नहीं हटेंगे, चाहे उन्हें जान ही क्यों न देनी पड़े। इसीलिए इस पूरे माहौल से लगता है कि जिस तरह किसान आंदोलन को राजनीतिक रंग चढ़ चुका है, वैसे में बीजेपी चुनाव के दौरान इस व्यापक विरोध को कैसे डिफेंस करेगी, यह देखना बहुत ही महत्वपूर्ण होगा।

आखिर सरकार का इतना महिमामंडन क्यों…..?

देवानंद सिंह

जब भी पत्रकारिता की बात आती है, इसे जनता की ताकत के रूप में देखा जाता है। जब शासन व प्रशासन में बैठे लोग जनता की बात नहीं सुनते हैं तो मीडिया ही एकमात्र माध्यम होता है, जिसके माध्यम से जनता अपनी बात रखती है, लेकिन जब मीडिया जनता की बात सुनने के बजाय केवल सरकार की बात करने लगे तो जनता किसके पास जाएगी, क्योंकि वर्तमान के जो हालात दिख रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि बहुत से मीडिया संस्थान अब जनता की आवाज रहने के बजाय सरकार की आवाज बन चुके हैं, उन्हें न तो आम जनता से सरोकार है और न ही किसानों के मुद्दों से सरोकार रहा, इसीलिए आज मीडिया पूरी तरह सरकार के हाथ की कठपुतली बनकर रह गई है।



 देश की मीडिया जिस तरह बंटी हुई है, उससे लगता है कि निकट भविष्य में मीडिया के बीच यह लड़ाई ऐसी ही चलती रहेगी। मुज्जफरनगर में हुए किसान आंदोलन के दौरान भी हमने यही दिखा, मीडिया का एक ग्रुप किसानों की बात करता रहा और दूसरा ग्रुप सरकार की बात करता रहा। हर बार सरकार के ही पक्ष की बात करने वालों के खिलाफ खूब आक्रोश भी दिखा। किसानों ने एक महिला पत्रकार के यहां पहुंचने पर गोदी मीडिया वापस जाओ के नारे भी लगाए। वास्तव में, देश में आज मीडिया की बड़ी ही अजब स्थिति हो गई है, एक जमाना था, जब पत्रकारों को खूब सम्मान मिलता था, लेकिन आज पत्रकारों को कोई सम्मान नहीं देना चाहता, बल्कि आज पत्रकारों को दलाल की उपाधि दी जाने लगी है। इसके लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है, बल्कि खुद को बड़ा पत्रकार मानने वाले पत्रकार ही जिम्मेदार हैं, क्योंकि आज पत्रकार राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं से ज्यादा कुछ और काम नहीं कर रहे हैं। जब पत्रकारों को सरकार की कमियों को उजागर करने का काम करना चाहिए था, तब ये लोग सरकार का महिमामंडन करने में जुटे हुए हैं। जब ऐसे पत्रकारों को यह समझने की जरूरत है कि सरकार का चुनाव तो अच्छे काम करने के लिए ही किया जाता है, ऐसे में जब आपको सरकार के खराब कामों की चर्चा करनी चाहिए, तब भी पत्रकारिता जगत के बड़े बड़े लोग हर बार सरकार को बचाने में जुटे रहते हैं और ठीक यही काम राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं का भी रहता है। चैनलों पर होने वाले डिस्कशन के दौरान भी हम देखते हैं कि चैनलों का एजेंडा भी सरकार के हिसाब से सेट होता है। यही वजह है कि कुछ चंद पत्रकारों की वजह से न केवल सरकार लगातार पत्रकारों पर हावी हो रही है, बल्कि पत्रकारिता का भविष्य भी विनाश की तरफ बढ़ रहा है। बहुत सारे संस्थान बंद हो चुके हैं, जिसकी वजह से हजारों पत्रकार सड़क पर पहुंच चुके हैं। यहां सवाल यह है कि जब पत्रकार ही एकजुट नहीं हैं तो सरकार उसका फायदा तो उठाएगी ही। लेकिन, इस वक्त सरकार का महिमामंडन करने वाले पत्रकार यह न भूले कि जब सरकार बदलेगी तो उन्हें भी नई सरकार के प्रकोप को झेलने के लिए तैयार रहना होगा।

भाजपा के लिए खतरे की घंटी है कल्‍पना सोरेन की सियासी मैदान में धमाकेदार एंट्री

देवानंद सिंह आखिरकार पूर्व सीएम हेमंत सोरेन की पत्‍नी कल्‍पना सोरेन की पत्‍नी कल्‍पना सोरेन की सियासी मैदान में एंट्री हो गई है, बकायदा, उन्...