Thursday 26 August 2021

सत्ताधारी दल और विपक्ष दोनों को विदेश नीति पर सकारात्मक सोच रखने की जरूरत अन्यथा आतंकवाद पर काबू पाना असंभव

  देवानंद सिंह 

अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद दुनिया में एक बार फिर आतंकवाद का खतरा मंडराने लगा है। खासकर, इससे भारत को सबसे अधिक सचेत रहने की जरूरत है, क्योंकि तालिबान को पालने पोसने वाला कोई और नहीं, बल्कि पाकिस्तान ही है। इसीलिए तालिबानी आतंकियों का सीमा पार से आतंकी गतिविधियों को अंजाम देना आसान होगा। दूसरा, इस घटनाक्रम का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि चीन भी तालिबान के समर्थन में खड़ा है। इसीलिए तालिबानियों के लिए यह अपने आप में बड़ी ताकत साबित होने वाला है।



 और पाकिस्तान, भारत के खिलाफ इसका पूरा लाभ उठाना चाहेगा। ऐसे में, भारत के लिए सतर्क रहना बहुत ही जरूरी है, केवल सेना के मोर्चेबंदी पर नहीं, बल्कि राजनीतिक मोर्चेबंदी पर भी। सीमा पर तो हमारी सेना दुश्मन को नेस्तनाबूद कर सकती है, लेकिन राजनीतिक मोर्चे पर यह थोड़ा मुश्किल लगता है, क्योंकि अक्सर यह देखने को मिलता है कि हमारी राजनीतिक पार्टियां एकजुट होने की कोशिश नहीं करती हैं। केंद्र सरकार जब अपनी विदेश नीति को सशक्त बनाने की हर संभव कोशिश कर रही है, ऐसे में विपक्ष को भी सरकार का समर्थन करना चाहिए। यह ठीक है, आंतरिक मुद्दों को लेकर विरोधाभास झलके, लेकिन विदेश नीति के मामलों में हर संभव सहयोग की भावना झलकनी चाहिए। चाहे वह चाइना के साथ टकराव की बात हो, पाकिस्तान के साथ विवाद की बात हो, राहुल गांधी के बयान हमेशा ही जुदा रहे हैं। यह स्थिति तब है, जब सरकार विदेशी मामलों पर हमेशा ही विपक्ष से सहयोग की उम्मीद रखती है और ऐसे मुद्दों पर विपक्षी दलों को हर स्थिति से अवगत कराती है। अफगानिस्तान के मामले में भी सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई है, जिसमें सरकार की तरफ से अफगानिस्तान के प्रकरण पर विपक्षी नेताओं को वहां के घटनाक्रम के बारे में जानकारी दी गई। ऐसे में, विपक्ष को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। आपको कहीं पर कुछ कमी नजर आती है तो उस संबंध में सरकार को सुझाव दिए जाने चाहिए। सार्वजनिक तौर पर सरकार विरोधी बातें नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इससे दुश्मन देश फायदा लेने की कोशिश करते हैं। अभी वाला मुद्दा बहुत अधिक संवेदनशील लगता है, क्योंकि यह सीधेतौर पर आतंकवाद से जुड़ा हुआ मामला है। तालिबानियों की सक्रियता का मतलब है, पाकिस्तान को बड़ी ताकत मिलना। तालिबानियों के हाथ जिस तरह अमेरिकी हथियारों का जखीर लगा है, उसे पाकिस्तानी आतंकी भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकते हैं। अफगानिस्तान की सीमा पाकिस्तान से भी लगी है और चीन से भी लगी है, इसीलिए तालिबानी आतंकियों के लिए पाकिस्तान की तरफ भारत की सीमा में घुसपैठ करना ज्यादा मुश्किल नहीं है। चीन तो  सीमा पार से आतंक में कई गुना इजाफा हो जाएगा, जो भारत के लिए चिंता का विषय है। इसीलिए तालिबानी आतंकियों के लिए पाकिस्तान की तरफ भारत की सीमा में घुसपैठ करना ज्यादा मुश्किल नहीं है। चीन तो  पाकिस्तान का दोस्त है ही, इसीलिए उसे चीन से कोई खतरा नहीं, लिहाजा पाकिस्तान की सीमा से आतंक में कई गुना इजाफा हो जाएगा, जो भारत के लिए चिंता का विषय है। इसीलिए जरूरी है कि सभी दल विदेश नीति को लेकर एक साथ आएं, तभी बढ़ते इस आतंकवाद के खतरे से निपटा जा सकता है।

Tuesday 24 August 2021

जातीय जनगणना का जिन्न

   जातीय जनगणना का जिन्न एक बार फिर बाहर आ गया है। और इस मुहिम के अगुआ बनकर सामने आए हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। उन्होंने जातिगत जनगणना की मांग उठाकर एक तरह से बिहार के साथ-साथ देश में भी एक नई राजनीतिक बहस को छेड़ दिया है। उनके नेतृत्व में जिस तरह 11 पार्टियों के नेता एकजुट हुए हैं और वो प्रधानमंत्री से मिले, उससे लगता है कि यह मुद्दा आने वाले दिनों में राजनीतिक बहस के केंद्र में रहेगा। पर यहां सवाल यह है कि क्या केंद्र इस बार इस मुद्दे को लेकर गंभीर दिखेगा या फिर इस बार भी यह प्रस्ताव लटका ही रहेगा ? क्योंकि इससे पहले केंद्र को दो बार प्रस्ताव मिल चुका था, लेकिन केंद्र ने इस पर कोई भी अमल नहीं किया। प्रधानमंत्री से मिलने से पहले जेडीयू के सांसदों ने जाति आधारित गणना की मांग को लेकर गृहमंत्री अमित शाह से भी मुलाकात की थी। बात आगे नहीं बढ़ी तो इस बार जातिगत जनगणना के समर्थक दलों के प्रतिनिधि नीतीश कुमार के नेतृत्व में सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले। इस मुद्दे को लेकर जितनी चर्चा हो रही है, उतनी ही चर्चा इस मुद्दे को उठाने के वक्त को लेकर हो रही है।



दरअसल, नीतीश कुमार ने यह मुद्दा ऐसे समय में उठाया है , जब बीजेपी और केंद्र में मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष की गतिविधियां तेज हैं। राम मंदिर,सीएए ,370 जैसे कई मसलों पर बीजेपी से अलग राय रखने के बावजूद नीतीश कुछ कर नहीं पाए, लिहाजा जातीय जनगणना में बीजेपी पर प्रेशर बनाने का उन्हें बड़ा स्कोप नजर आ रहा है। और उन्हें इस मुद्दे को लेकर उनके विरोधी नेताओं का खुलकर साथ भी मिल रहा है। उनके धुर विरोधी और बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेज प्रताप यादव भी उनके समर्थन में खड़े हो गए हैं। कुल मिलाकर, बीजेपी को छोड़ कर धीरे धीरे जातीय राजनीति करने वाले सारे राजनीतिक दल साथ खड़े हो रहे हैं। 2022 से पहले समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने भी बीजेपी को घेरने के लिए जातीय जनगणना का कार्ड खेल दिया है। बकायदा, उन्होंने संसद में इसकी मांग उठाते हुए कहा कि अगर बीजेपी जातियों की गिनती नहीं करती तो ये पिछड़ों की जिम्मेदारी है कि वो बीजेपी को सत्ता से बाहर कर दें। बीजेपी के खिलाफ कम मुखर दिख रही मायावती भी इस मसले पर पीछे नहीं रहना चाहतीं है। 



मायावती ओबीसी समाज की अलग से जनगणना कराने की मांग शुरू से ही करती रही हैं। अभी भी बसपा की यही मांग है और इस मामले में केंद्र की सरकार अगर कोई सकारात्मक कदम उठाती है तो फिर बसपा इसका समर्थन जरूर करेगी। वैसे यह मुद्दा अभी का नहीं है और न ही बीजेपी शुरू से इसके खिलाफ रही है। अभी इस मुद्दे को लेकर कितनी सफलता मिलेगी, इस बारे में कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगी, क्योंकि पहले भी जब जब इसको लेकर मांग उठी या तो उस मांग को माना नहीं गया या जब कुछ कदम उठाए गए तो उसका परिणाम किसी न किसी वजह से अटकता ही रहा। बात शुरूआत से करें तो देश में आखिरी बार जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी। उस समय पाकिस्तान और बांग्लादेश भी भारत का हिस्सा थे। तब देश की आबादी 30 करोड़ के करीब थी। अब तक उसी आधार पर यह अनुमान लगाया जाता रहा है कि देश में किस जाति के कितने लोग हैं। 1951 में भी जातीय जनगणना की मांग उठी, लेकिन इस प्रस्ताव को गृह मंत्री सरदार पटेल ने यह कहकर खारिज कर दिया था कि इससे देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है।

 आजाद भारत में 1951 से 2011 तक की हर जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के आंकड़े ही जारी किए जाते रहे हैं। मंडल आयोग ने भी 1931 के आंकड़ों पर यही अनुमान लगाया कि ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है। आज भी उसी आधार पर देश में आरक्षण की व्यवस्था है, जिसके तहत ओबीसी को 27 फीसदी, अनुसूचित जाति को 15 फीसदी तो अनुसूचित जनजाति को 7.5 फ़ीसदी आरक्षण मिलता है।

हम सब जानते हैं कि देश में जनगणना का काम हर 10 साल में होता है, 2011 की जनगणना को दो चरणों में पूरा किया गया था। पहले चरण में अप्रैल 2010 से सितंबर 2010 के बीच देशभर में घरों की गिनती की गई थी। वहीं, दूसरे चरण में 09 फरवरी, 2011 से 28 फरवरी, 2011 तक चली। इसी तर्ज पर 2020 में भी जनगणना का काम शुरू किया जाना था, जिसे कोविड महामारी की वजह से स्थगित कर दिया गया था।

2021 का आधा साल से ज्यादा का समय बीत चुका है, लेकिन अभी तक देश में जनगणना का काम धरातल पर शुरू नहीं हो सका है। सरकार के ये कहने के बाद भी कि इसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा अन्य जातिगत जनसंख्या की गणना नहीं होगी, नीतीश के नेतृत्व में कई पार्टियों ने जातिगत जनगणना के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया है। जिससे केंद्र की बीजेपी सरकार पूरी तरह पेशोपेश में आ गई है। लेकिन सत्ता में रहते हुए केवल बीजेपी के साथ ही यह स्थिति नहीं हुई है बल्कि

आज जिस तरह बीजेपी के सहयोगी आरपीआई, एचएएम और जेडीयू जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं वही हालत 10 साल पहले कांग्रेस के साथ भी हुई, जब यूपीए सरकार के दौरान साल 2011 में पवार, लालू और मुलायम ने कांग्रेस सरकार पर जातीय जनगणना के लिए दबाव डाला था। सरकार को जातीय जनगणना करवानी पड़ी थी, लेकिन इस रिपोर्ट में कमियां बता कर जारी नहीं किया गया। 2011 में एसईसीसी यानी सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस आधारित डेटा जुटाया गया था। इस पर चार हजार करोड़ से ज़्यादा रुपए ख़र्च किए गए और ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी विकास मंत्रालय को इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी।

साल 2016 में इसी मोदी सरकार में जनगणना के आंकड़े प्रकाशित तो किए गए, लेकिन जातिगत आधार पर डेटा जारी नहीं किया गया। 

आज भले ही बीजेपी संसद में इस तरह के जातिगत जनगणना पर अपनी राय कुछ और रख रही हो, लेकिन 2011 की जनगणना से ठीक पहले 2010 में संसद में बीजेपी के नेता गोपीनाथ मुंडे ने कहा था, "अगर इस बार भी जनगणना में हम ओबीसी की जनगणना नहीं करेंगे, तो ओबीसी को सामाजिक न्याय देने के लिए और 10 साल लग जाएंगे।

हम उन पर अन्याय करेंगे। इतना ही नहीं, पिछली सरकार में जब राजनाथ सिंह गृह मंत्री थे, उस वक़्त 2021 की जनगणना की तैयारियों का जायजा लेते समय 2018 में एक प्रेस विज्ञप्ति में सरकार ने माना था कि नई जनगणना में ओबीसी का डेटा भी एकत्रित किया जाएगा, लेकिन सरकार में आने के बाद इस मुद्दे को लेकर बीजेपी का मूड पूरी तरह बदला हुआ नजर आ रहा है। वह अब अपने पिछले वादे से संसद में ही मुकर गई। नीतीश कुमार द्वारा केंद्र को भेजे गए दो प्रस्ताओं पर सरकार की तरफ से कोई भी हरकत देखने को नहीं मिली। उधर, कांग्रेस ने विपक्ष में आने के बाद 2018 में जाति आधारित डेटा प्रकाशित करने के लिए आवाज़ उठाई थी, लेकिन उसे सफ़लता नहीं मिली। यह स्थिति तब है, जब स्वयं बीजेपी ओबीसी कार्ड खेलने में पीछे नहीं है। हाल में ही केंद्र ने मेडिकल एजुकेशन में 10 फीसदी आर्थिक पिछड़ों के साथ-साथ 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को मंजूरी दी है, वहीं मोदी मंत्रिमंडल में भी सबसे ज्यादा मंत्री ओबीसी से ही हैं, इसके बाद भी सरकार फिलहाल जातीय जनगणना कराने के पक्ष में नहीं है।

पिछले दिनों लोकसभा में एक सवाल पर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने कहा था कि 2021 की जनगणना में केवल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए गणना कराई जाएगी, जातीय जनगणना नहीं। दरअसल, बीजेपी की राजनीति हिंदुत्व के मुद्दे पर टिकी है। हिंदुत्व का मतलब पूरा हिंदू समाज है, अगर जाति के नाम पर वो विभाजित हो जाता है तो जाति की राजनीति करने वाले दलों का प्रभाव बढ़ जाएगा और बीजेपी को नुकसान होगा। 2015 में बिहार चुनाव के दौरान संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा वाले बयान पर खूब सियासी बवाल मचा था। संघ प्रमुख के बयान पर बीजेपी को बार बार सफाई देनी पड़ी थी कि आरक्षण खत्म करने का उसका कोई इरादा नहीं है। बाद में, मोहन भागवत को भी इसी स्टैंड का सपोर्ट करना पड़ा था कि आरक्षण से छेड़छाड़ के पक्षधर नहीं हैं। 

जहां तक मंशा का सवाल है बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस भी कभी नहीं चाहती कि देश में जाति आधारित जनगणना हो, क्योंकि इन्हें डर रहता है कि अगर ऐसा हुआ तो क्षेत्रीय राजनीति करने वाले जाति आधारित दलों का प्रभुत्व और बढ़ जाएगा और इन पार्टियों को इसका भारी नुकसान झेलना पड़ सकता है। लेकिन जिस तरह जातीय जनगणना का जिन्न 10 साल बाद बाहर आया है, और इसे अधिकतर क्षेत्रीय पार्टियों का समर्थन मिल रहा है, ऐसे में इससे बीजेपी सरकार का जल्द पीछा छूटना मुश्किल है। अगर, सरकार जल्द इस पर क्षेत्रीय पार्टियों के अनुसार निर्णय नहीं लेती है तो 2022 में यूपी सहित कई अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में इन पार्टियों की तरफ से जातीय जनगणना से संबंधित छोड़े जाने सवाल रूपी तीरों को सहने के लिए भी तैयार रहना होगा।

Monday 16 August 2021

क्यों डर के छुप गए मानवाधिकारों की बात करने वाले ठेकेदार देश, क्या बदत्तर हालातों में नहीं की जा सकती थी अफगानिस्तान की मदद ?

क्यों डर के छुप गए मानवाधिकारों की बात करने वाले ठेकेदार देश, क्या बदत्तर हालातों में नहीं की जा सकती थी अफगानिस्तान की मदद ?.........            


         देवानंद सिंह                   

  तालिबान ने अफगानिस्तान पर जिस तरह बंदूक की नोक पर कब्जा किया है, यह केवल अफगानिस्तान के भविष्य पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाता है, बल्कि विश्व समुदाय पर भी सवाल खड़े करता है। अपने आप को दुनिया का चौधरी समझने वाले अमेरिका पर तो सबसे बड़े सवाल खड़े करता है। क्योंकि यह केवल अफगानिस्तान की ही हार नहीं है, बल्कि अमेरिका के साथ साथ दुनिया में लोकतंत्र स्थापित करने के सभी पक्षधर देशों की भी हार है। यह बात बहुत हैरान करती है कि जिस तरह अफगानिस्तान में मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, उसको लेकर भी किसी देश के मुंह से कुछ नहीं निकल रहा है। भारत की अध्यक्षता में भले ही आयोजित हुई यूनाइटेड नेशन सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) की बैठक में अफगानिस्तान के हालातों पर चिंता जाहिर की गई हो और उसे आतंकवाद का पनाहगार नहीं बनने देने का संकल्प लिया गया हो, पर यह चिंता तब जाहिर की जा रही है, जब तालिबान ने काबुल पर भी कब्जा कर लिया है,  वहां के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तक देश से भाग चुके हैं। दुनिया के कई देश खुले तौर पर तालिबानी हुकूमत को मान्यता देने की होड़ में जुट गए हैं। वह भी उन हालातों में जब तालिबानियों का इतिहास दुनिया के सामने है। क्या दुनिया के देश अफगानिस्तान को बचा नहीं सकते थे ? जब वहां पिछले 20 सालों से लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम थी। भारत तक ने वहां हजारों करोड़ की परियोजनाओं में निवेश किया हुआ है। अमेरिका कई ट्रिलियन डॉलर खर्च कर चुका है। अगर, शायद दुनिया अफगानिस्तान के साथ खड़ी हो जाती तो वहां तालिबानी अपना कब्जा करने में सफल नहीं हो पाते। अभी तालिबान नेता कह रहे हैं कि वे अफगानिस्तान के सारे पक्षों को साथ लाने के लिए तैयार हैं, लेकिन उसकी पुरानी हरकतों को देखते हुए उन पर भरोसा करना हर किसी के लिए मुश्किल है। शॉर्ट टर्म में यह तालिबान की बड़ी जीत है और वे अपनी जीत का पूरी तरह से राजनीतिक लाभ पाने की कोशिश करेंगे। जिस तरह के हालात बन रहे थे, तालिबान के खिलाफ दुनिया का कोई भी देश खड़ा नहीं हुआ तो काबुल के पास सरेंडर के अलावा कोई चारा था ही नहीं। यह बड़ा इंटेलिजेंस फेलियर भी है। पहले अमेरिकी इंटेलिजेंस कह रही थी कि काबुल पर कब्जे में तालिबान को 30 दिन लगेंगे, लेकिन 30 दिन तो छोड़िए, चंद घंटों में ही उसने काबुल पर कब्जा जमा लिया। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति के साथ साथ बड़े लोग भाग गए, लेकिन मरने के लिए रह गई तो केवल आम जनता। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि तालिबान को जो मौका मिला, वह अमेरिका की गलत नीतियों और बाइडन सरकार की सेना वापस बुलाने की वजह से। उसका उन्होंने बैटल ग्राउंड में फायदा उठाया और काबुल को चंद घंटों में फतह कर लिया।  
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी की कोशिशें तो ओबामा के वक्त से ही चल रही थीं, जिससे साफ जाहिर हो रहा था कि अमेरिका की राजनीतिक बहसों में अफगानिस्तान का मुद्दा धीरे-धीरे नीचे आ रहा है, जिसकी वजह से लगातार संभावना बन रही थी कि अमेरिका धीरे-धीरे वहां अपने फुटप्रिंट्स कम करेगा, लेकिन ओबामा और ट्रंप, दोनों ने सेनाएं तो कम कीं, लेकिन अफगानिस्तान में ढांचे को खत्म करने की ओर कभी भी नहीं बढ़े। बाइडन सरकार ने सबकुछ खत्म कर दिया, उन्होंने पीठ दिखाकर अपने सैनिकों को बुला लिया और अफगानिस्तान को मरने के लिए उसके हाल पर छोड़ दिया। तालिबान ने इसी का फायदा उठाया। नतीजन, भले ही, अफगानिस्तान आज अपने आंसू रोने को मजबूर हो, लेकिन बाइडन सरकार की भी या बहुत बड़ी राजनीतिक हार है। जैसी हार वियतनाम में हुई थी, वैसी ही। इसे वियतनाम हार का ही दूसरा नमूना कहा जा सकता है। 
अमेरिकी सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया पूरी होने के पहले ही मामला यहां तक पहुंच गया कि अमेरिका तालिबान से कह रहा है कि वह काबुल पर भले हमला करे, लेकिन वहां मौजूद अमेरिकियों पर ना करे। इसे उनका प्रतिद्वंद्वी चीन प्रॉजेक्ट करेगा कि यह अमेरिका की कितनी बड़ी हार है और उसे परसेप्शन बनाने में इससे फायदा मिलेगा। दूसरा, चीन के पाकिस्तान के साथ जिस तरह के घनिष्ठ संबंध हैं, वह चाहेगा कि अफगानिस्तान में जिस अराजकता की संभावना बनती दिख रही है, उसका प्रभाव उसके यहां शिनच्यांग में न पड़े। चीन ने तालिबान को बुलाया भी था और तालिबान के लीडर्स वहां गए भी थे। वहां तालिबानियों ने कहा था कि वे चीन और उसके निवेश का स्वागत करते हैं, आतंकवाद के मसले पर चीन को कोई परेशानी नहीं होने देंगे। लेकिन दूरगामी परिणाम चीन के लिए भी वही होंगे, जो बाकी दुनिया के लिए होंगे। अगर, कोई चरमपंथी विचारधारा अफगानिस्तान में पनप रही है और उसे बड़ी जीत मिली है तो इसका असर उसके पड़ोसी देशों सहित बाकियों पर भी पड़ेगा। अब यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि अफगानिस्तान की भविष्य की तस्वीर कैसी होगी ? क्या दुनिया तालिबान द्वारा प्रोजेक्ट सरकार को मान्यता दंगे या फिर वहां लोकतंत्र बहाली को लेकर कुछ कदम उठाएंगे ? अगर, तालिबान का वही पुराना तरीका बरकार रहेगा तो उस स्थिति में क्या होगा ? कैसे मानवाधिकारों की रक्षा की जाएगी ? दुनिया भले ही इस पर चिंतन मंथन करे, लेकिन तालिबान राज में, जो सबसे अधिक मुश्किल होगा, वह आम नागरिकों का जीवन। खासकर, महिलाओं, बच्चों पर जुल्म होंगे। वर्तमान हालातों में जिस तरह दुनिया अफगानिस्तान का तमाशा देखती रही, लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया गया, ऐसे में आम लोग मानवाधिकारों की रक्षा के लिए किसी से कोई उम्मीद रखें, ऐसा कहना मुश्किल होगा।

खाद्य सुरक्षा और उपभोक्ता जागरूकता जरूरी

देवानंद सिंह  खाद्य पदार्थों में हो रही मिलावट के बढ़ते मामले काफी चिंताजनक हैं। खासकर उत्तर प्रदेश में, जहां खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता और ...