रामविलास पासवान के निधन के बाद कौन होगा दलितों का नेता ? वोटरों के सामने यक्ष प्रश्न
देवानंद सिंह
कोरोना काल में बिहार ऐसा पहला राज्य होगा जहां विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं, जिस पर पूरे देश की नजर है. बिहार विधानसभा चुनाव में जैसे-जैसे मतदान की तिथि नजदीक आती जा रही है, वैसे-वैसे चुनाव अभियान की रोचकता बढ़ती जा रही है. बिहार की जनता भी राजनीतिक दलों की गतिविधियों पर पैनी निगाह रखे हुई है. अहम बात यह है कि बिहार विधानसभा के इस चुनाव में न दलितों के मसीहा रामविलास पासवान होंगे और न ही पिछड़ों के मसीहा लालू प्रसाद यादव. पासवान का हाल ही में निधन हो गया, जबकि लालू प्रसाद यादव फिलवक्त चारा घोटाले में जेल की सजा काट रहे हैं और चुनाव तक उनका जेल से निकलना भी मुश्किल है. ऐसे में राष्ट्रीय जनता दल की बागडोर युवा नेता और लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव के हाथ में होगी तो वही लोक जनशक्ति पार्टी की कमान युवा और स्वर्गीय रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान के हाथ में होगी.
ऐसे में बिहार विधानसभा चुनाव निश्चत तौर पर दिलचस्प होनेवाला है. रामविलास पासवान के निधन से दलितों का एक मसीहा छिन गया है. निश्चित तौर पर दलित के सामने ये यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया है कि अब दलितों का मसीहा कौन होगा. जाहिर है कि इसकी भरपाई करने की कोशिश में पासवान के बेटे और युवा चेहरा चिराग पासवान हैं. चंद दिनों पहले अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहे रामविलास पासवान के समय में ही चिराग ने एक बड़ा जोखिम लिया है और वह है बिहार चुनाव अकेले लड़ने का. भाजपा जिस नीतीश कुमार के चेहरे को लेकर चुनाव में उतरी है, उसे चिराग पासवान फूटी आंख भी नहीं सुहा रहे. इसका उदाहरण सिर्फ इस बात से दिया जा सकता है कि उन्होंने बाकायदा बिहार के लोगों के नाम एक पत्र जारी कर जेडीयू को वोट न देने की अपील की है. चिराग चाहते तो ये पत्र जारी कर सकते थे कि लोक जनशक्ति पार्टी को वोट दें. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. उन्होंने तो सीधे जेडीयू को वोट न देने की अपील कर दी.
इतना ही नहीं उन्होंने ये भी कहा कि वे जदयू प्रत्याशियों के खिलाफ अपने प्रत्याशी देंगे. इससे नीतीश के प्रति चिराग की तल्खी समझी जा सकती है. जैसा कि विदित है कि बिहार में दलितों की एक बहुत बड़ी आबादी है, एक अनुमान के मुताबिक बिहार में कुल वोटरों का करीब 16 फीसदी दलित वोटर हैं. इन वोटरों पर सीधा प्रभाव रामविलास पासवान का माना जाता रहा है. लेकिन नीतीश कुमार ने रामविलास पासवान को नीचा दिखाने के लिए महादलित का फॉर्मूला निकाला और इसके तहत पासवान जाति को अलग कर दिया. इतना ही नहीं लालू यादव की पकड़ मुसलमानों पर कमजोर पड़े इसके लिए उन्होंने मुसलानों में बंटवारा कर दिया और पसमांदा मुसमानो को अलग कर दिया. यानी एक तीर से दो निशाना. नीतीश के इस कृत्य से रामविलास काफी नाराज थे और ये नाराजगी उन्होंने खुले तौर पर व्यक्त भी की थी और दलितों को बांटने की राजनीति करार दिया था. दलित-महादलित बंटवारे का लाभ नीतीश को पिछले चुनाव में मिला भी. अब जबकि पासवान नहीं हैं, तब बिहार में दलित किसे वोट करेगा. इस पर राजनीतिक पंडितों का मंथन जारी हैं. वैसे यह माना जा रहा है कि रामविलास पासवान के निधन से चिराग और उनकी पार्टी एलजेपी को सहानुभूति का लाभ मिलेगा. युवा चेहरा चिराग पासवान और उनकी पार्टी राज्य में एनडीए का घटक हो या न हो केंद्र में तो है. साथ ही उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह से बेहतर संबंध भी हैं. दोनों एक दूसरे की तारीफ करते रहते हैं. दो दिनों पूर्व ही जब रामविलास पासवान का निधन हुआ, तो शाह ने अपने शोक संदेश में कहा था कि पासवान के निधन से राजनीति में एक शून्यता आ गयी है. जाहिर है कि शाह ये बातें प्रकट कर दलितों के प्रति अपनी सहानुभूति पाना चाहते हैं. इस चुनाव में चिराग ने साफ संदेश दे दिया है कि उनकी पार्टी बेहतर सीटें जीतती हैं, तो राज्य में बीजेपी के नेतृत्व में सरकार बनाने में अपनी भूमिका अदा करेंगे. जेडीयू इस राजनीति में फंस गयी है. दलितों का वोट अगर कटता है, तो जेडीयू की जीत एक चुनौती बन जायेगी. हालांकि दलितों के वोटों को अपने पाले में करने के लिए नीतीश ने हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) को अपने पाले में किया है, जिसके नेता पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी हैं. उन्हें महज सात सीटें जेडीयू ने दी है. हालांकि जीतन राम की दलितों में उतनी पकड़ है नहीं. वे दलितों का कितना वोट ट्रांसफर करा पायेंगे, यह कहना फिलवक्त जल्दीबाजी होगी. यही कारण है कि जेडीयू के प्रवक्ता एलजेपी के नेता चिराग पासवान पर कड़े हमले करने से बच रहे हैं, खुद नीतीश कुमार भी प्रतिक्रिया देने से बच रहे हैं. उन्हें पता है कि इसका खामियाजा क्या हो सकता है. जबकि चिराग बेखौफ होकर बिहार के चुनाव का मजा ले रहे हैं.
लालू की कमी खलेगी महागठबंधन को
उधर दूसरी ओर पिछड़ों के मसीहा और मुसलमानों पर गहरी पकड़ रखनेवाले लालू प्रसाद यादव इस चुनावी समर से बाहर जेल में है. हालांकि उन्हें एक मामले में जमानत तो मिली, लकिन दूसरे में नहीं, इसलिए उन्हें नवंबर तक जेल में ही रहना होगा और तब तक चुनाव ही खत्म हो जायेगा. दस नवंबर को चुनाव के नतीजे भी आ जाएंगे. इसलिए ये चुनाव बिन लालू कैसा होगा, समझने की बात है. राजनीतिक पंडितों का मानना है कि चुनाव में लालू फैक्टर नहीं रहेगा, लेकिन लगता नहीं है कि ऐसा होगा. निश्चित तौर पर लालू के बेटे तेजस्वी चारा घोटाला में जेल में बंद अपने पिता लालू यादव के मामले को सहानुभूति में बदलने की कोशिश करेंगे. वहीं दूसरी ओर एनडीए लालू यादव के चारा घोटाले व अन्य भ्रष्टाचार के मामले को उछालने का कोई मौका नहीं छोड़ेगा. पिछले चुनाव में नीतीश-लालू साथ लड़े थे और कांग्रेस भी साथ थी, जिसका बड़ा लाभ मिला. महागठबंधन को भारी जीत मिली थी. बिहार में कई चुनावी सभाओं में प्रधानमंत्री मोदी के गला फाड़ने के बाद भी भाजपा महज 54 सीटों पर सिमट गयी. लेकिन अब लालू चुनावी समर में नहीं हैं, तो इसका लाभ किसे मिलेगा, फिलवक्त कहना मुश्किल है, लेकिन ये तो तय है कि पिछड़े खास कर यादव और मुस्लिम वोटों पर आरजेडी की गहरी नजर है. यही कारण है कि तेजस्वी एक-एक सीट गहरे मंथन के बाद तय कर रहे हैं. बिहार की पल-पल बदलती चुनावी राजनीति में अगले पल क्या होनेवाला है, इसको आप भी इंज्वॉय करें.
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Good News may An initiative work are goings in that purposes ,I salute to Devanand Sir who is pursuing this News,
ReplyDeleteThanks
Abdul Hadi Alig
Kishanganj Bihar India